सैलाब
सैलाब
बह गया था कुछ ? या सब कुछ
सैलाब ऐसा भी आया था , एक दिन
तिनको से तैरते सपने , बह चले थे टूटने
मिट्टी की गुड़िया मानो बारिश में नहा ली , आख़िरी बार
मिट जाने को , मिल जाने को धरा से फिर एक बार ।
हँस दिए तुम , दर्द से भरी हँसी
मैं रोता रहा जार जार ,बैठ अकेला अँधेरे कोने में ।
आँसू क्यों ख़त्म नहीं होते ?
बहते रहते बन कर इक धार ।
रोकने को इन पागलों को ,
नहीं कोई बाँध तैयार ।
एक सैलाब ऐसा भी आया , एक बार
विश्वास बह गया , भरोसा भी दरक गया ।
रूठ कर ? या होकर मजबूर ,
तू भी चला गया ।
काम न आया कोई मनुहार ।
एक सैलाब ऐसा क्यों आया उस बार?