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Anupama Chauhan

Abstract Tragedy Inspirational

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Anupama Chauhan

Abstract Tragedy Inspirational

औरत और समाज

औरत और समाज

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देवी हूँ मैं किसी मन्दिर की मैं,

तो किसी घर में होता मेरा तिरस्कार है।

मैं लड़ रही देश की रक्षक बन,

तो कहीं मेरे ही हिस्से में थप्पड़ और मार है।


बुलंद है आवाज़ मेरी राजनीति में,

कहीं ज़िंदगी के लिये चीखती मेरी पुकार है।

मैं जनता की सेवक हूँ डॉक्टर बन,

तो कहीं मेरे दिल के कोने में ज़ख्म बेशुमार है।


मैं जननी हूँ, बेटी हूँ, बहन और बहू भी,

पर मेरे अस्तित्व को मेरे होने का कहाँ अधिकार है?

समानता मिल रही सबको दुनिया में,

क्यों मेरे साथ हो रहा ये दोहरा सा व्यवहार है?


महिला दिवस ,बालिका दिवस मेरे लिये,

तो कहीं मासूम रूह को चीरता हुआ बलात्कार है।

घर से बाहर रहूँ, फिर भी बेड़ियाँ पांव में,

अब तो बस बेखौफ वाली आज़ादी का ही इंतजार है ।



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