ज़िंदगी:दो जून की रोटी
ज़िंदगी:दो जून की रोटी
ना जाने उनकी ज़िंदगी अभी कैसी होगी,
जो उगते सूरज को अपने श्रम से सलाम करते हैं।
बन्द होना पड़ रहा सबको चारदीवारी में जब,
वो ही जाने; कैसे दो जून रोटी का इन्तज़ाम करते हैं।
तपती धूप में खुद को जलाते थे जो,
कि उनके बच्चों का भविष्य वो संवार सकें।
अपने मेहनत के पसीने से सींचकर,
आने वाले कल(अगली पीढ़ी) को निखार सकें।
महामारी ने सब कुछ बदलकर रख दिया,
वो कभी न थकने वाली सड़क सुनसान पड़ी है।
उस पर गुजर कर रोज़ी रोटी कमाता था जो,
उसकी ज़िंदगी कहीं न कहीं बेजान पड़ी है।।
कोई मांगे न तुमसे चंद रुपये कभी,
तो उसे नाराज़गी से ना दुत्कार देना।
ना समझना उस पर एहसान कर रहे,
जो भी दो साथ में थोड़ा ही सही प्यार देना।
उस खुदा से बस मिन्नतें इतनी हैं कि,
जो भी हो सब पर एक एहसान कर दे।
निर्जीव सी हो गयी है जो ज़िंदगी,
अपनी बरकत से सब में जान भर दे।।