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Krishna Sinha

Abstract Tragedy

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Krishna Sinha

Abstract Tragedy

दम मेरा अब घुटने लगा है

दम मेरा अब घुटने लगा है

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कोई हटाओ इन पहरेदारों को,

की दम मेरा अब घुटने लगा है...

इस तनहाई के कैदखानों में,

चीख चीख के लफ्ज थकने लगा है ,

मयस्सर नहीं दीदार ए रौशनी

क्यों उम्मीदों का सूरज छिपने लगा है ,

नाज़ था बड़ा जिस वज़ूद पर अपने ,

वो ना जाने कहाँ खोने लगा है ...

कोई हटाओ इन पहरेदारों को,

की दम मेरा अब घुटने लगा है...

सीधी सी दिखती थी राह जो मंज़िल की,

कदम बढ़ाया, तो क्यों रास्ता धूमिल होने लगा है ....

कोई हटाओ इन पहरेदारों को,

की दम मेरा अब घुटने लगा है...

तस्सवुर में थी मासूम सी तस्वीर उसकी,

क्यों कूची में रंग सूखने लगा है ,

उतरने भी ना पायी कागज़ में सूरत ,

क्यों हाथों का हुनर खोने लगा है ...

कोई हटाओ इन पहरेदारों को,

की दम मेरा अब घुटने लगा है...



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