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Kumar Pranesh

Romance Tragedy

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Kumar Pranesh

Romance Tragedy

भटक रहा हूँ विकल विकल मैं !

भटक रहा हूँ विकल विकल मैं !

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जंगल जंगल पर्बत पर्बत

उपवन और चौबारो पे

हर जगह दिल ढुंढा तुझको

सागर तीर किनारों पे

आ जाओ अब देर करो न

छोड़ के सारी बेबशी

भटक रहा हूँ विकल विकल मैं

कहाँ गई हो प्रेयसी...


बेला मिलन की बीत न जाये

मन है अधुरा तेरे बिन

आकर मेरा हाल तो देखो

तड़प रहा बन जल बिन मीन

पीड़ा बिरह की मिट जायेगी

देख तेरा रूप सांवल सी

भटक रहा हूँ विकल विकल मैं

कहाँ गई हो प्रेयसी....


कोरे दिल में प्रीत जगा के

फिर क्यों अब मुँह मोड़ लीया ?

जन्मों जन्म का वादा करके

बीच राह क्यों छोड़ दिया ?

तु मिल जाये मंज़ील मिल जाये

मिल जायेगी हर खुशी

भटक रहा हूँ विकल विकल मैं

कहाँ गई हो प्रेयसी....


मैं और तुम को फिर हम करने

एक बार तो आ जाओ

तकती अँखियॉ थक गइ अब तो

प्यास नयनन की बुझा जाओ

कर जाओ बाँहों का संदल

मीट जाएगी मायूसी

भटक रहा हूँ विकल विकल मैं

कहाँ गई हो प्रेयसी...


बसंत बीत गइ सावन बीता

बीता प्रीत का हर मौसम

तेरे बीन अब बहार भी पतझड़

कहाँ छुपाऊ अपना गम़

फुलों सी मुस्कान फिर लेकर

आ जाओ अब दिलनशी

भटक रहा हूँ विकल विकल मैं

कहाँ गई हो प्रेयसी.....


उल्फत का यह दौर है कैसा

हर एक नज़र को कोस रहे

तेरा चेहरा याद है रहता

बाकी कुछ न होश रहे

मुर्छीत मन को पुल्कीत करने

आ जाओ बन औषधी

भटक रहा हूँ विकल विकल मैं

कहाँ गई हो प्रेयसी.....


मन अधीर है नम नयन है

कॉपते होंठ पुकारे है

निष्प्राण हो गया है ये तन

अखियों में अश्रु के धारे है

रो देगा अब छंद यह मेरा

आ जाओ न प्रेयसी

भटक रहा हूँ विकल विकल मैं

कहाँ गई हो प्रेयसी....

 


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