बेखटक लिखना...
बेखटक लिखना...
मेरा भी कभी कविता या कहानी लिखने का मन करता है...
मन में आनेवाले उन सारे लफ़्ज़ों से...
वह कहानी या कविता बस मैं लिखती जाऊँ...
वे सारे लफ़्ज़ मैं बेखटक लिखना चाहती हूँ ...
अचानक मेरे जहन में कुछ बातें कौंध सी जाती है
कुछ लोगों का निर्वासन जहन में ताज़ा होता है
झट से मैं उन लफ़्ज़ों को बदल देती हूँ....
बल्कि उनकी जगह अलग किस्म के लफ़्ज़ लिखती जाती हूँ...
बेहद पॉलिश किये लफ़्ज़....
मुझे अब ज़माने की फ़ितरत और बाज़ार की ज़रूरत का इल्म हो गया है...
लोग अब हक़ीक़ी दुनिया के किस्सों को छोड़कर....
कुछ रूमानी दुनिया की कहानियाँ पढ़ना चाहते है...
कुछ पल वे रूमानी दुनिया में जीना चाहते है...
जहाँ ज़िंदगी की दुश्वारियाँ और भूख का कोई ज़िक्र ना हो...
मैं कुछ कहानियाँ और कविताएँ उस रूमानी दुनिया पर लिख देती हूँ...
लेकिन मेरा मन मुझे ही धिक्कारने लगता है...
वह मुझे चाटुकार कहने लगता है...
कभी अवाम का गद्दार भी कहने लगता है...
आईने से भागकर मैं गाँव के तालाब के एकांत किनारे बैठ जाती हूँ...
खामोश और बेआवाज़...
किसी मछली की हरकत पर मेरा ध्यान अनायास पानी में जाता है...
वह पानी भी मुझे अवाम का गद्दार कहता सा लगता है.....
एक अनामिक चाह से मैं एक बड़ा पत्थर उस पानी में उछाल देती हूँ...
पानी में बिल्कुल मेरे उस चेहरे पर...
उस एक ही पत्थर से न जाने कितनी सारी लहरें उठती है...
पानी पर और मेरे मन में भी...
अपनी उन रूमानी कहानियों और कविताओं को मैं झट से उस पानी में फेंक देती हूँ.....
अब ना लहरें उठती है और न तरंगें ही...
वे सब कागज़ी कहानियाँ और कविताएँ पानी पर तैरने लगती है...
ठिक वैसे ही हक़ीक़त की दुनिया के कागज़ की कश्ती और बारिश के पानी वाले किस्सों की तरह...