बाढ़-विभीषिका
बाढ़-विभीषिका
धरा अब ऐसे डोल रही।
आस से कुछ बोल रही।
हृदय विदारक चीत्कार,
कानों में विष घोल रही।
विलीन हो रोये नन्हें पौधे,
धराशायी हुए असंख्य तरु!
चहुँओर जल के तांडव से,
जलमग्न नयन भर अश्रु।
कितने शिशु जलमग्न हुए!
ममता थककर हार चुकी।
भर अश्रु नयनों में, प्रयत्नों
को अपने हर माँ वार चुकी।
बालक-सी डरी-सहमी-सी,
लिपटी-बहती शहतीर पर।
बाढ़ विभीषिका मूक-सी,
दहशत की दहलीज़ पर।
सागर-सी उठती लहरों में,
फटते आँचल तमाम रहे।
अपनों को खोकर रोते जो,
नीरवता में डूबे शाम रहे।
लाशों के ढेरों पर चढ़-चढ़,
कितने खुदगर्ज़ बने मारण।
रोती माँ की बोली लगाते,
करते शर्मसार बने रावण।
बँटती रोटी छीन रहे नित,
सबल धनवान वो बहुतेरे।
निर्बल पीड़ित जन रिक्त,
कौन जीवन में करे सवेरे।
जल ही जीवन, जल-प्रलय;
जल ही जल आँखों में घना।
जल के घेरे में, प्यासे-प्यासे;
अब जीवन कोहराम बना।