क्यों निगहबान ही गुनाह कर गया
क्यों निगहबान ही गुनाह कर गया
क्यों निगहबान ही, यह गुनाह कर गया।
नाज़ था जिस पे, वही तबाह कर गया।
ज़ूद-पशेमाँ कभी, मरहम न लगा सका।
अब यह आसमाँ भी, आगाह कर गया।
हरेक शख़्स डूबा हुआ था, आशनाई में।
फिर भी वो, सबसे ही निबाह कर गया।
यूँ तो मुश्किलें लाख, खड़ी रहीं राहों में।
फिर भी वो वफ़ा, सर-ए-राह कर गया।
ना यह ज़मीं थी, ना आसमाँ था उसका।
फ़िर भी वो मोहब्बत, बेपनाह कर गया।
हँसकर भुलाता रहा, वक़्त की साजिशें।
फ़िर भी कैसे मौत को, गुमराह कर गया।
ख़्यालों की तरह, अपने ही देते रहे दग़ा।
नीरस बेख़ुदी में ही, वो गुनाह कर गया।