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D.N. Jha

Tragedy

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D.N. Jha

Tragedy

ग़रीबी की दास्तां

ग़रीबी की दास्तां

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ना जाने क्यों धूप में तपने की आदत सी हो गई है।

पसीने में डूबे रहने की आदत सी हो गई है।

जेठ की तपती दुपहरी में जब वो भागते घरों की ओर,

जब पंखे और कूलर की नमी में चैन पाते लोग,

तब भी मैं पत्थर तोड़ रहा होता,

उस वक्त भी ईंटें जोड़ रहा होता,


तभी तो कहता हूं कि

ना जाने क्यों भूखे रहने की आदत सी हो गई है।

पसीने से सनी रोटी खाने की आदत सी हो गई है।

जब व्यंजनों और पकवानों का वो स्वाद ले रहे होते।

जब रेस्तराॅं में थालियों में वो व्यंजनों को छोड़ रहे होते।

तब भी मैं भूखा जोड़ रहा होता

तब भी सूखी रोटियां तोड़ रहा होता


तभी तो कहता हूं कि

ना जाने क्यों जमीं पर सोने की आदत सी हो गई है।

बिन बिछावन और गद्दे के सोने की आदत सी हो गई है।

जब सोते वो मोटे गद्दे और लिहाफों में,

जब सोते वो दीवान और पलंगों में,

तभी मैं जमीन पर सो रहा होता।

घास फूस और पत्तों को भी बिछा रहा होता।


तभी तो कहता हूं कि

ना जाने क्यों जमीन पर सोने की आदत सी हो गई।

ना जाने क्यों धूप में तकनीकी आदत सी हो गई है।



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