कहीं रोटी, तो कहीं भूख नहीं होती!
कहीं रोटी, तो कहीं भूख नहीं होती!


कहीं रोटी, तो कहीं भूख नहीं होती।
कहीं दीवारें, तो कहीं धूप नहीं होती।।
कहीं बिकता ज़मीर, चंद सिक्कों में।
तो कहीं दिलों में धूल भी नहीं होती।।
कहीं मंजिलें, ख़ुद ही तक़दीर बनी।
तो कहीं राहें भी, क़बूल नहीं होती।।
कहीं चाँदनी भी खिलखिला उठती।
तो कहीं ज़रा-सी, रोशनी नहीं होती।।
कहीं रिश्तों में, ख़लिश पलती रही।
तो कहीं नीरस तड़प दूर नहीं होती।।