बाबा की बिटिया है तू
बाबा की बिटिया है तू
बेटी बियाहि गई, बाबुल के अंगना से बिदाई हुई।
ये घर हुआ अब गैर, वो होगा तेरा अपना घर।
सास को अपनी मां समझना, ससुर को पिता सामान,
सिखला के यह भेजी गई।
सीता ने भी सुने थे ताने, थी वो जनक दुलारी।
तू है रानी म्हारे मन की, पर है यह प्रथा पुरानी।
मुख पे अपने रखना मुस्कान, कभी न किसी का करना अपमान।
रखना पीहर की लाज़ तुम, हो मां बाप की नाज़ तुम।
मन में लिए इन बातों का गहना, हुई विदा वो पिया के अंगना,
होंठों पे लेकर मुस्कान करती सबका हर क्षण मान।
नई आस की चंचल आंगन, हर्षित करते अंतर्मन को।
पिया का संग, प्रेम के रंग, रंग गई वो कुछ हीं पल में,
मोह के धागे में बंध गई वो।
हुई पुरानी चार दिन वो, खटकन लागी हर आंखों को।
नए - नए ताने- बाने की बुने जाल उसे तोड़न को।
बाबुल की खिलाफ न सुनी हो जिसने कभी इक आवाज़,
है वो अब सहती धैर्य से हर बाण।
पर कर याद वो विदाई में दिए वचन, तोड़ती हर बाण को अपने सुलझे मोती से।
करती सेवा सास ससुर की फिर भी वो बन आदर्श।
गर रह गए उसके मन में न जाने कितने सवाल,
पूछ न पाई आज तक वो किसी से ये जवाब।
आखिर क्यूं बेटी की मां खुद गैरों की बेटी को बेटी नहीं बना पाती?
क्यूं अपने जिगर के टुकड़े के दिल के धागों को वो हर बार है तोड़ती?
आखिर क्यूं एक बहन किसी की बहन का दर्द नहीं समझती है,
क्यूं संजोती है ज़हर वो अपने मन में जिसने उसे सगी बहन माना हो?
क्यूं ये प्रथा है आज भी कायम जिसने तोड़े है न जाने कितनों के घर?
आखिर क्यूं है बाबा की बिटिया आज भी कंकर उन आँखों का,
जिनके घर की वो ही है आधार ?
आखिर क्यूं इक सांस नहीं बन पाई कभी अपनी हीं बहु की मां?