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Anshu Priya

Abstract

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Anshu Priya

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स्वार्थ हूं मैं !

स्वार्थ हूं मैं !

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ये बंधन, ये रिश्ते क्या स्वार्थ है सब?

हां, मैं कहती हूं सब स्वार्थ है!

स्वार्थ जन्म है, स्वार्थ ही मृत्यु ,

स्वार्थ के मद में यह जीवन है चूर।

स्वार्थ न जाने प्रेम व काया,

इसकी तो हर बात में माया!


रात नींद में सोई है

हर आंख ख़्वाब में खोई है

खुली हुई ये जो दो आंखें है मेरी

राह किसीकी ताक रही है,

क्या स्वार्थ है सब?

हाँ, मैं कहती हूं सब स्वार्थ है !


करवटें बदल रही है

सिलवटें जो बन रही हैं

यह देह कब से यूं हीं

कभी इस ओर तो कभी उस ओर

तूफ़ानों सी इन रातों पे

ये क्या स्वार्थ है भारी ?

हाँ, मैं कहती हूं सब स्वार्थ है!


कभी हंसाया कभी रुलाया

फिर हंसा कर फिर रुलाया,

कदम बढ़े जो इक पग आगे

कई डोरियां उसे नचाए

क्या ये खींचा- तानी स्वार्थ है सब?

हाँ, मैं कहती हूं सब स्वार्थ है !


आशियां सबकी अपनी - अपनी

रहना भी सबको खुद में है।

पर इक दूसरे के घोसलें को

क्यूं तोड़ते लोग हैं ?

हां, मैं कहती हूं सब स्वार्थ है!


सूरज पूरब से आता है

फिर पश्चिम में ढल जाता है

पर प्राणिमात्र है अडिग खड़ा...

कहता यूँ की मैं-मैं हूँ तुम-तुम हो..

क्या ये तू - तू , मैं - मैं के झगड़े स्वार्थ है सब?

हां, मैं कहती हूं सब स्वार्थ है!


गलत है तू ऐसा न कर

वैसा कर जो तुझे बताऊं,

फिर सही को गलत, गलत को सही

सब साबित करने का शस्त्र है स्वार्थ।

हाँ, मैं कहती हूं सब स्वार्थ है!


तुम कम, मैं ज़्यादा हूं,

फिर मुझको तुमसे है आगे जाना

ये भाग - दौर की बातें क्या स्वार्थ है सब ?

हाँ, मैं कहती हूं सब स्वार्थ है !


हां, मैं कहती हूँ मुझमें है स्वार्थ,

तुम में है स्वार्थ...

पर स्वार्थ की पट्टी इन आंखों पर

यूं है कि खुद को जिताना है कार्य भारी,

हाँ हम सब पर है ये स्वार्थ भारी

हाँ, मैं कहती हूँ सब स्वार्थ है!


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