मुझमें मैं कितना?
मुझमें मैं कितना?
ढूंढ रही हूँ आजकल मैं मुझमें बची मैं कितना,
हाँ बदला है मुझमें बस अब ये इतना,
की थी मैं पहले बस बेटी, बहन और सखी
पर हूँ अब इक बीवी, बहु और माँ!
हाँ दिखता है सबको मुझमें अपने - अपने रिश्ते, पर क्या मुझे है दिखता मेरे अंदर की मैं से अपने रिश्ते?
ढूंढ रही हूँ आजकल मैं 'मुझमें बची मैं कितना?'
न जाने फिर कब वो दिन आयेगा जब नाम सुनकर अपना अपने होने का गौरव होगा, फिर आयेगी नजर मुझको की मुझमें हूँ मैं बची कितना।
पहले कोशिश होती थी की इक अच्छी बेटी बन पाऊं ,करूं न ऐसा काम कभी कि सिर अपनों का झुकाऊं,दिल था भोला कर जाती थी गलती कई उसमें भी, लाख चाह के बन न पाई बेटी सबसे प्यारी।
हाँ तब भी मैंने खो दिया था अपनों के अंदर खुद को
ढूंढ रही हूँ आजकल मैं
' मुझमें बची मैं कितना?'
तब भी मैं न मैं थी अब भी मैं ना मैं हूँ
अब भी मुझमें ढूंढ रही हूँ मैं बची हूँ कितना?
अब हूँ इक माँ, इक बीवी और अपनों के उम्मीदों की डोरी,
पर चाह करके भी नहीं कर पा रही इनके सपनों को पूरी
और ना हीं बन पाई मैं इक अच्छी बहु और बीवी
जबकि दिया है खो मैंने अब भी खुदके अन्दर के खुदको।
ढूंढ रही हूँ आजकल मैं अपने अंदर
' मुझमें बची मैं कितना?'
चाहत है बहुत कुछ कर जाने की पर है सैकड़ों मजबूरी।
इन्हीं में ग़ुम हूँ मैं और गुम हो गई है राहें मेरी।
ढूंढ रही हूँ आजकल मैं अपने अंदर
' मुझमें बची मैं कितना?'
लगी हूँ कबसे न जाने मैं ढूंढने अपने सपने,
खोखली नीतियों ने ना होने दिए अबतक उन्हें अपने।
अब मैंने ये ठाना है न करने दूंगी छल्ली उनको और इस हृदय को,
सपनें होंगे वहीं साकार
जहाँ होगी कदर मेरे प्रतिभाओं की ,
अब ना दूंगी मैं और परीक्षा खुद को साबित करने की।
ढूंढ रही हूँ आजकल मैं 'मुझमें बची मैं कितना?'
✍️अंशु प्रिया
