औरत हूँ मैं
औरत हूँ मैं
औरत हूँ मैं, अपने सारे सपने भूला गयी,
हर गम को सादगी से भरी मुस्कान में छिपा गयी।
जिसने जैसा कहा, जिसने जैसा मांगा,
खुद के अस्तित्व को भूला उसी रूप में खुद को ढाल गयी।
मासूम, कोमल सी कली कब बदन पर सुहाग का श्रृंगार लिए ढेरों जिम्मेदारियाँ निभा गयी।
कभी किसी के अभिमान की खातिर तो कभी कभी किसी के मान के खातिर,
अपनी ही खुशियों को बिसरा गयी।
कोई समझा नहीं मेरे दर्द,, मेरे आंसूओं, मेरी भावनाओं को,
शान्त रह अपने जज्बातों को शब्दों में ही ढाल गयी।
जीती हूँ मैं सबके लिए लेकिन क्या मैं जिन्दा हूँ ये पता नहीं,
औरत हूँ मैं, अपने सारे सपने भूला गयी।