अश्म (पत्थर).....!
अश्म (पत्थर).....!
हूँ तो मैं पत्थर
इसलिए तो तुम्हारी वो
अमिट तस्वीर छप गई है
ना ये मिट सकेगी
ना ही ये पत्थर तेरे सिवा
किसी और के समक्ष खिल सकेगा
स्मरण है ना
कभी इसी पाषाण पर अंकुरित हुआ
प्रीत का बीज...!
सुना तो यही है जिन्हें पनपना होता है
वो राह बना लेते हैं पत्थरों के बीच
वो कल कल कर झरते झरने
शायद उन्हें भी पत्थर से ही प्रेम होता है
इसलिए तो वो उनके ऊपर ही सवार हो आती हैं
और वो पत्थर
कितनी तन्मयता से उसकी बाँह थाम के भी
उसको प्रेम से विदा करता है
और भिगोता हैं ख़ुद को आँसुओं से उसकी याद में
कहाँ खिलता है वो किसी और के सामने
हाँ.. हूँ मैं पत्थर...
जिस पर तुमको उकेर लिया है मैंने।