अभिलाषा
अभिलाषा
नीले अम्बर से कोई आज पुकार रहा है
निज रूप मनोहरता से ही फुसला रहा है
रंग अनिश्चित रूप अनिश्चित सा दिखला रहा है
उमड़ घुमड़ कर सिर ऊपर ही मँडरा रहा है।
पाने की चाहत में चित्त चकोर भाग रहा है
दौड़ा जितना उछला उतना ही दूर रहा है
मन मयूर छू ले उसको जो ललकार रहा है
सीढ़ी पकड़ चढ़ा ऊपर तब इतरा रहा है।
हाथ बढ़ा चाहा लूँ पकड़ फिर शरमा रहा है
पसारे बाँह किया आरजू फिर दूर रहा है
आकर्षण गजब का उसका पास बुला रहा है
मन विह्वल होकर उछला बस निअरा रहा है।
समझ गया कि आँख मिचौली ही खेल रहा है
जोर लगा उछला तब निर्बल सा काँप रहा है
'वीनू' तन गर्मी से फुहार बन सींच रहा है
पूर्ण हुई अभिलाषा सारा जग झूम रहा है।