अंधा बन दौड़ रहा है
अंधा बन दौड़ रहा है

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उद्देश्यहीन नर यूँ दौड़ रहा है
मानो आकाश को चूम रहा है
जब नहीं पता है मंजिल उसको
फिर क्योंं अंधा बन दौड़ रहा है।
सामर्थ्य का अपने ज्ञान नहीं है
पथ का भी कुछ आभास नहीं है
नहीं ज्ञान है निज लक्ष्य का उसको
फिर क्यों अंधा बन दौड़ रहा है।
चलती ट्रेन के संग दौड़ लगाता
सेल्फी अपनी वह खींच रहा है
काल के गाल में खो जाता है
फिर क्यों अंधा बन दौड़ रहा है।
क्षणिक प्रशंसा पाने की खातिर
जीवन अनमोल से खेल रहा है
सर्वश्रेष्ठ जगती का प्राणी वह
फिर क्यों अंधा बन दौड़ रहा है।