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Archana kochar Sugandha

Action

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Archana kochar Sugandha

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आखिर मंजिल तो यही श्मशान थी

आखिर मंजिल तो यही श्मशान थी

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जब से दहेज उत्पीड़न के मामले बंद हुए हैं 

इस समाज के कुछ नए रंग-ढंग हुए हैं। 


अब बेटियाँ दहेज के लिए सताई नहीं जाती 

सरेआम जिंदा जलाई नहीं जाती।


दान-दहेज हम माँग नहीं सकते 

कानून के हाथ हैं बड़े लंबे 

सीमाएं हम लांघ नहीं सकते। 


तीन कपड़ों में तुम्हें ब्याह कर लाए थे 

अपने होनहार बेटे के लिए 

कुछ सपने हमने भी सजाए थे।


छवि अपनी नेक दिल सज्जन की भुनानी थी

कितना भी कह लो - बहू को बेटी

आखिर बेटी तो बेगानी थी। 


रोज रात उसके साथ एक नया शख्स सुलाया जाता था 

मना करने पर, खून के आँसुओं से रुलाया जाता था। 


उसके बेदाग दामन को- दागदार बनाया जाता था 

चरित्रहीन-कुलटा-कुलक्षिणी का 

लेबल लगाया जाता था। 


विरोध का बिगुल कौन-कैसे बजाता मायके वालों के आगे 

बेटी-बेटी कह कर गोद में बैठाया जाता था।


बेटी-बेटी के नाम पर 

धंधा पिटवाया जाता था 

उनके आडंबरों से अंजान 

माँ-बाप द्वारा बेटी को ही 

गलत ठहराया जाता था। 


घोर अपराध को दिया उसने भी अंजाम था 

दो बेटियों का किया काम तमाम था।


नारी जाति का उस दिन हुआ अपमान था 

जब स्तन से करवाया उसने विषपान था।


जीते जी मैं रोज तिल-तिल कर मरती 

फिर मैं उनके लिए क्या करती…? 


मैंने उनका जीवन नहीं बर्बाद किया

इसलिए अमानुषता से उन्हें आजाद किया।


वह देवी से, चंडी रूप धार नहीं सकी 

अबला से- सबला विचार नहीं सकी।


उसकी कायरता पर, उन्होंने अपने कुकृत्य को 

बड़े सधे तरीके से दिया अंजाम 

कफन में लपेट दी उसकी जीती-जागती जान। 


चिता की लपटों से उसकी सिसकियाँ चीत्कार रही थी 

मदद के लिए हमें पुकार रही थी।


जब मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाया था चिता में भभका उसका साया था।


वातावरण में धुआँ-धुआँ फैली उसकी सिसकियाँ थी 

अवशेष में बची केवल जली हुई अस्थियाँ थी।


सगे-संबंधियों के चेहरे पर विजयी मुस्कान थी 

आखिरी मंजिल तो तेरी यहीं श्मशान थी। 



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