५.लोक लिहाज
५.लोक लिहाज
लोक लिहाज संग अपने लिए,
चल दी मैं भी औरों के रास्ते,
घूंघट शर्म और लिहाज़,
बस यही थे कुछ चंद अल्फाज़,
बाकी है मुझमें बहुत कुछ,
रचना है खुद में एक नव युग,
ओस की बूंद सी ठहरी,
एक उलझी सी मैं पहेली,
लोक लिहाज़ की बतियां ये कैसी,
समझने को इन्हें एक उम्र मैंने दी थी,
कभी जो बांचू इन्हें मैं,
एक सवाल सा उठे है मन में,
क्या था लोक लिहाज़,
बंदिशों और बेड़ियों का दूजा नाम,
उड़ान को भूल कर,
निकली एक लंबे अनन्त सफ़र पर,
एक लंबी उखड़ी सोच सा,
इस लोक लिहाज़ ने परिंदों को बेपर किया था,
कमी कहीं तो कुछ थी,
वरना ये चुप्पी क्यू थी,
शायद वजह लोक लिहाज़ थी,
खुद से बेखबर वो अपनी ही खोज में थी,
वो छूना चाहती थी आसमां पर उड़ान रोक दी गई थी,
गुन्हा ना कुछ पर मुजरिम करार दी गई थी,
एक अंधेरी सजा खुद को सुना दी थी,
कोई पूछे क्यूं उसकी सिसकियों में आवाज़ ना हुई थी,
इस ठंडे कोहरे के पीछे एक चिंगारी सुलगी हुई थी,
उसके अरमानों की राख हवा बिखर गई थी,
सबर है काफी,
लिखना है काफी,
लोक लिहाज़ के परदे जो डाले है,
कितने सवाल राख कर डाले है
चलो लिखे एक नया लोक लिहाज़,
रंगे फिर नए रिवाज़,।।