पहचान
पहचान
पहचान कौन है पहचान
तेरा साया तेरा टुकड़ा तुझसे पूछे
कौन है पहचान
पहचान बनाने में अरसा लगता
एक एक दिन गिन गिन कर चुनता
आज खोई वो पहचान है मैंने
तुम पूछते हो कैसा लगता
पहले हर वक्त लोग थे मेरे
अब साये भी दूर है मेरे
पहले हर काम में वाह वाही थी
आज खुशी में भी दोष है मेरे
पहले खुश रहता था बिना किसी परवाह के
आज हँसी में भी खोट है मेरे
पहले अंजान भी हाल पूछा करते
आज मुझे अपने भी कोसते मेरे
ये सब हुआ नहीं एक रात में
ये सब हुआ नहीं एक बात से
धीरे धीरे चढ़े जहर सुना था मैंने
मैं बिखर गया एक ही शह मात में
ये खेल शतरंज का चला लंबा
एक दिन में नहीं, हुआ ऐसा चार साल में
हर साल एक सीढ़ी चढ़ा उतरने को
पूरा चढ़ने पर पता चला, उतर गया अपने आप से।।