नींद और पाप
नींद और पाप
रात को लेकर चलता हूँ
सुबह को भी जलता हूँ
पर नींद न इस हिस्से, न उस करवट
अब सवाल सारे हैं
परिस्थितियों से हारे हैं
ना जाने कब बिस्तर गले से लगाएगा
नींद को आराम दिलाएगा
बेचैन, स्तब्ध, हैरान लेटा हूँ
बस पंखा ही दिख रहा
मैं तो ख्यालों में खो चुका
नींद भेज आई थी बीच में जगाने
मगर हाथी तो विचारों में खो चुका
पाप को छोड़ना चाहता हूँ
दुनिया में लौटना चाहता हूँ
चाहता हूँ ये काम ना करना पड़े
फिर से उसे याद ना करना पड़े
मगर ये लफ्ज़ हैं सीने में चुभे हुए
ये विचार कब किसी के आगे झुके हुए
व्यक्ति विशेष की निंदा करता हूँ
फिर भी हर वक़्त उसी की चिंता करता हूँ
रूठा है सदियों से, आएगा भी नहीं
तक कर राह उसकी खुद को अंधा करता हूँ
