तन्हाई
तन्हाई
जब तन्हा होता हूँ मैं
निकल पड़ता हूँ यूँ ही कहीं
अपनी तन्हाई के साथ
किसी भीड़ भरे बाज़ार में
फेरी वालों की आवाज़ों के बीच
चीखती गाड़ियों के शोर में
किसी धुँए उड़ाते झुण्ड
के बगल से गुजरते हुए
उस उड़ते धुँए के साथ
दूर तक चला जाता हूँ मैं।
किसी भीड़ भरे रेस्तरां में
कोने की खाली मेज़ पर
यूँ ही बैठे
शीशों के उस पार भागती दौड़ती
दुनिया को देखते
खाली प्लेटों चम्मचों की
आवाज़ के साथ
ठहर जाता हूँ मैं।
पर नहीं जाता किसी निर्जन
समुद्र तट पर
पहाड़ी पर बने किसी सूने
किले में
डरता हूँ कि कहीं इस एकांत में
मेरी तन्हाई न पूछ बैठे वो सवाल
जिससे बचने के लिए
भीड़ भरी जगहों पर जाता हूँ मैं।