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sunanda aswal

Abstract Fantasy

4.0  

sunanda aswal

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न‌ई भोर की दीवाली 'रंग -पीला'

न‌ई भोर की दीवाली 'रंग -पीला'

3 mins
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कहते हैं उस साल दीपावली के दिन...धनवंतरी दादी जिस दिन से दुनिया छोड़ी उस दिन से आज तक मेरे घर दीपावली कभी ना आई ..!

मैंने जब से इस घर जन्म पड़ोसी के बच्चों को हमेशा फुलझड़ी व पटाखे से खेलते देखता मन बेचैन हो उठता ..!

जब कुछ बड़ा हुआ मां से पूछा ,"__मां यह दीपावली हमारे घर क्यों नहीं मनाई जाती ? क्या कभी भी नहीं मनाई जाएगी ?"

मां को मेरी मासूम भावनाओं की खबर थी समझती वह बोली,"--बेटा ..! तुम्हारी दादी इस दिन ही गुजरी थी ना ..! इसलिए यह त्योहार नहीं मना सकते ..! जब तक कभी भविष्य में यहां इस घर में किसी का नया जन्म नहीं होता तब तक नहीं मना सकते हैं .! "

मुझे मां की बातें समझ नहीं आ रही थीं । फिर भी मैं मां के समझाने से भी नहीं समझ पा रहा था ,बोला,"--इसका मतलब ? क्या मैं कभी नहीं नहीं .....!

लगता था किसी ने मेरा वह बचपन छीन लिया हो जिसमें दीपावली का उपहार होता है ,खेल खिलौने होते हैं ..! पटाखे होते हैं न‌ए कपड़े होते हैं ..!

मां को मेरी बातें असहज लग रही थीं । उनकी आंखों नम हो रहीं थीं ।

वे बात बीच में ही काटते हुए बोली ,"---तू बहुत भोला है ..अभी छोटा है ना ..यह जान ले दीवाली में जब कोई भी पैदा होगा तभी यहां दीए जलेंगे ,पटाखे व फुलझड़ियां छूटेंगे ..! जैसे घर में गाय का बछड़ा या फिर किसी का भी बच्चा आने से ,..!"

"मां -मां ",--कहता मैं मां से लिपट गया ।

इस दीपावली की रात अपनी आदत के अनुसार फिर पड़ोसी की दीवार से मैं झांका देखा जो हमेशा दीपावली में गुमसुम बैठा दिखा । मैंने पूछा ," क्या हुआ मीकू ? तुम दीपावली में इस बार नहीं पटाखे नहीं छोड़ रहे और ना ही घर में दीए जल रहे हैं ?"

उदास होकर बोला," --चीनू क्या बताऊं मेरे दादाजी इस दीपावली के दिन ऊपर चलें ग‌ए । इस बार हमारी दीपावली नहीं होगी ।"

",ओहह , बहुत बुरा हुआ ..! कितना अच्छा लगता था जब तुम पटाखे छोड़ते थे ..! तुमको देखकर खुश होता रहा ,आज बहुत बुरा लग रहा है दोस्त ..!" मैंने मुंह बनाते हुए कहा ।

हम दोनों एक दूसरे को देख सवाल से जूझ रहे थे जिनका उत्तर मिलना कठिन होता जा रहा था ..!

मां मुझे देखने बाहर आई व पुचकारते हुए अंदर ले ग‌ई ...",बोली एक सरप्राइज है चीनू बाबा तुम सुनकर खुश होंगे ..! तुम्हारे गांव में आज ही चाचा की बेटी हुई है ..चलो आज ही गांव जाना है ..! अभी अभी फोन आया है ..! "

"सच मां ,!!"मैंने अपनी आंखों को मलते हुए कहा । मुझे विश्वास नहीं हो रहा था ..!

हम अपनी गाड़ी से गांव के आंगन में पहुंचे सुबह के चार बज रहे थे । कतारों से रौशनी सजी हुई थीं वो पीले रंग का प्रकाश मेरे मन को उद्वेलित कर रहा था ,रह रहकर मुझे अतीत की गहराइयों से अंधकार का अंत होता प्रतीत हो रहा था , मेरे हृदय में उजाले मेरी छोटी बहन " दीपाली " ने अपने जन्म से भर दिए थे ..वो दीवाली मेरे जीवन की दिवाली थी जिसने मेरे बुझी इच्छाओं को जला दिया था । 

आज भी मैं पड़ोसी के बच्चे मीकू के साथ दीपावली खेलता हूं !


मैं अपने पटाखे उसे बांटना नहीं भूलता क्योंकि, मैं जिन अंधियारे में था ,उन्हीं के बीच सीख पाया कि रौशनी क्या है ??!! 

एक नई भोर की दीवाली मुबारक मेरे दोस्त ..!

समापन

दीपावली की खुशियां सबको नसीब हों ..!



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