अजीब खिलौने
अजीब खिलौने
एक खिलौने का सच यही है, बचपन का हमसफर होता है , बचपन की दहलीज से जब पार हो जाते हैं ,तब मां इसे डाल कर संदूक में बोरे में रख देती है एक और यादगार के रूप में ।
निकल जाते हैं हम अपनी अपनी मंजिल की तलाश में , अलमारी और संदूक के खिलौनों से बेखबर,वे हमें अच्छे तो लगते हैं पर हम उन्हें खेल नहीं पाते जिम्मेदारियां देखकर, वे पड़े रहते हैं कोने पर अकेले सिसकते हुए ,तन्हाइयों में उन्हें याद करते हैं कभी हंसकर कभी रोकर ,उठा नहीं पाते हैं ,अजीब लगने लगते हैं वे कभी जब हम मंगाते थे उन्हें जिद कर कर ..!
बुलाते हैं वे हम कभी भूल नहीं पाते , जिन्हें चले गए थे हम कभी छोड़कर...टूटते ख्वाबों की तरह नहीं , बस आंखों में चमक ले आते हैं यार बनकर..!
अजीब से खिलौने.प्यारे से खिलौने,
गुमनाम दोस्त से मेरे खिलौने..!