भारत दर्शन और हिंदी
भारत दर्शन और हिंदी
भारत दर्शन करने के लिए हिंदी होना आवश्यक है, यह बात अवनी समझ चुकी थी । वह जब ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पी. एच.डी. करने के पश्चात भारत आई तो, उसे अपनी वह डिग्री भी अधूरी लगी । जिसे पाने के लिए अपनी भूमि को छोड़ कर गई थी ।
एक कमी थी उसे हर पल लग रही थी, उसकी आत्मा में बसा भारत और रगों में अंग्रेजियत के लहजे बिखरे हुए थे । उसकी बोल चाल में टूटे फ़ूटे हिंदी के शब्दों से बनी वर्णमाला लोगों को गुदगुदाने के लिए काफी थे, कभी लोगों की हंसी का पात्र बन जाती जब कहती, "---मी जाएगा घर । अभी आता ।"
उसे वह पल भी स्मरण हो आया जब, उसने हिंदी से अपना पूरा नाता ही तोड़ लिया था और उसने ठान लिया था कि, वह विदेशी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पूरी पी.एच.डी. करेगी ।
कुछ दिन पश्चात अपनी मातृभूमि को छोड़ पूरी पढ़ाई के उद्देश्य के लिए विदेश चली गई । उसके नजरिए में विदेश में नौकरी के बहुत से मौके मिल सकते हैं, और भारत में बेरोज़गारी अधिक है सो, उसके लिए पढ़ाई के संग संभावनाओं को भी तलाश करना आवश्यक रह गया था । पग पग पर हकीकत रुबरु हो रही थी ।
तभी अचानक उसे भारत एक विवाह समारोह में आना पड़ा और उसने भारत के उस प्रेम के स्वरूप को विदेश में कहीं खो दिया था । जिसे आज वह अंतस में महसूस कर रही थी ।
घर के बड़े बुजुर्गो के संग उसको कोई न कोई अनुवादक रखना जरूरी हो गया था, जो उसकी भाषा को सही ढंग से, समझे और समझा सके ।
अवनी के लिए सब कुछ इतना आसान नहीं था, अपने देश में कदम रखने के पश्चात भी वह उसके रंग में घुल नहीं पा रही थी, इस बात का उसे पश्चाताप और क्षोभ था ।
उसने सोचा कि, उसे एक हिंदी सिखाने वाला प्राध्यापक अपने लिए ढूंढ लेना चाहिए, उसने एक साक्षात्कार का विज्ञापन अखबार में दे दिया, ताकि, काम दे भी आसान हो सके।
प्रातः बेला पर :
सूर्य पारदर्शी बिंब के पर्दे झांकककर अपनी उपस्थिति दर्शा रहा था और वह हड़बड़ा कर बैठ गई। जल्दी से तैयार होकर उसने पुस्कालय की ओर अपना रुख किया, उसने जैसे ही वहां कदम रखा, वहां सामने एक श्वेत रंग का डील डौल का लम्बी, कद-काठी का ऊंचा, सुंदर गहरी नीली आंखों वाला विदेशी युवक दिखाई दिया ।
उसने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया, जब उसने हिंदी भाषा में उसे बोलते सुना तो वह आश्चर्यचकित रह गई । आज वहां उसी हिंदी वक्ता की तलाश में आई थी ।
अपनी ओर उसे आता देख उसकी सांसे तेज चलने लगी, वह बोला, "महोदया ! आप ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. करके आईं हैं न? आपको हिंदी भाषा को सीखना है न? मैं ने आपका अखबार में आपका विज्ञापन पढ़ा था ।"
"जी, हां ! पर मुझे भाषा में दिक्कत हो रही है। " उसने टूटी-फूटी हिंदी में कहा।
"ओहहह ! कोई बात नहीं मैं सिखा दूंगा हिंदी, कहकर वह हंसने लगा।
उसे यह जानकर आश्चर्य हो रहा था कि उस श्वेत विदेशी पुरुष को हिंदी कैसे आ सकती थी?
उस श्वेत पुरुष में न जाने कौन सा आकर्षण था कि वह उसी में उलझ कर रह गई थी । उसने सोच लिया था कि, उससे अधिक प्रेरणादायक उसके लिए कोई हो ही नहीं सकता, जबकि वह विदेश की धरती में पढा लिखा है ।
उस श्वेत विदेशी युवक का नाम माइकल था, उसकी मां जर्मन और पिता अमेरिकी थे, जबकि उसका सात पुश्तों से हिंदी से कोई भी नाता नहीं था, फिर भी हिंदी के प्रति प्रेम उसकी मां का अध्यात्मिक केंद्र खुद को समर्पित करना बताया था, पिता तो वापस अमेरिका चले गए पर मां बच्चे को लेकर भारत की धरती पर रह गई, भारत दर्शन में उसने अध्यात्म दर्शन को देखा, यही शिक्षा उन्होंने माइकल को दी ।
माइकल ने सोच लिया था यदि, भारत को जानना है तो उसकी आत्मा हिंदी से मित्रता करनी होगी, सो उसने हिंदी के चरणों में खुद को समर्पित कर दिया, तत्पश्चात हिंदी से एम.फिल. भी किया ।
उसकी प्रेरक कहानी किसी चमत्कार से कम नहीं थी, अवनी के लिए विशुद्ध हिंदी सीखना राम बाण सिद्ध हुआ । वह दिन भी आ गया जब अवनी अच्छी तरह हिंदी बोल रही थी ।
माइकल के विदा होने का अन्तिम दिन भी आ गया था, अवनी के लिए माइकल ने जो छाप छोड़ी थी, उसे वह भूल नहीं सकती थी ।
वह चुपचाप बाहर की ओर देख रही थी, तभी माइकल पीछे से आया, अवनी ने उसके हाथ में एक कागज़ दिया जिसे वह पढ़ने लगा...
" ज्ञान सरोवर पवित्र नीर,
हिम गंग के प्रेरक अधीर !
जलधि में संचय अमृत,
स्रोत वारि, प्राण प्रतिष्ठित !
वसुधैव कुटुंबकम् प्रीत,
सौंदर्य उसकी भाषा प्रतीक..!
जैसे वृषभानुजा के द्वारकाधीश,
तुम सजा लो मेरा बिंब प्रीत.!
धन्य हूं मैं, वार दी कुछ बूंदे अमृत,
हिंदी मधुर मेरा जीवन संगीत..!
आपकी अवनी।
पत्र पढ़कर माइकल बहुत प्रभावित हुए।
उसके पश्चात उन्होंने अवनी को एक सुंदर जीवन साथी के रूप में स्वीकार कर लिया । आज माइकल हिंदी के किसी विद्यालय में वक्ता हैं ।
उन दोनों का प्रेम हिंदी प्रेम से ही प्रारंभ हुआ था और आज तक उनके हिंदी प्रेम को उनके विद्यार्थी सर नवाते हैं ।