अजनबी शहर ( ग़ज़ल)
अजनबी शहर ( ग़ज़ल)
रात को विरानी में सोया ,अजनबी शहर ,
सुबह की भाग दौड़ से बेचैन रहा पूरा शहर ..!
जाग कर थका हुआ ये सफर ,
सुबह मालूम नहीं कौन कहां है, किधर..!
अजनबियों से घिरा भीड़ भरा ये शहर,
कल तक न रहेगी किसी की खबर ..!
दो गज पर रहते हैं छज्जे फासले मगर,
जानता कौन है किसको अंजान नजर ..!
बातें खामोश इशारे से करता अजनबी शहर ,
भला कौन जानता है न पता और न घर ..!
कभी ,सुनाई देती है दास्तां, हादसों में जिक्र,
कभी पहचानी सी लगती है मशहूर कोई कब्र ..!
