सर्द प्रेम की दास्तां
सर्द प्रेम की दास्तां
बाहर शीत लहर का प्रकोप...इधर फायर प्लेस के आगे बैठी दो काली आकृतियां ..!
सामने चाय की केतली और उस फायर प्लेस के बुझते हुए अंगार पर रखी थी, वह भी लड़ रही थी उस ठंड से जो बदन को अकड़ने नहीं दे सकती थी।
खिड़कियों से बहती सर्द हवाएं जीव के लिए आलस्य से भरी ठिठुरन दे रहीं थी।
बाहर वृक्षों में बाहर पर्णों पर ओस की बूंदें अटक झड़ रही थीं। जिससे एक अद्भुत ध्वनि उत्पन्न हो रही थी , जिससे एक प्रकृति में रोमांचित हलचल पैदा कर रहा था।
कभी बर्फ से आच्छादित हिमालय से शीत बहती, वातावरण में नमी थी और दो आकृतियां फायर प्लेस के आगे सिकुड़ गई थीं।
तभी पुरुष स्त्री की आकृति से बोला," -- याद है ! जब पहली बार आपकी मुझसे मुलाकात हुई थी ?"
"जी याद है ..!"इस बार स्त्री स्वर था।
माता पिता के विरोध के बाद भी दोनों नहीं माने और दोनों ने भागकर ब्याह कर लिया।
"ह्ह्हां कैसे भूल सकती हूं " वह सब इस बार स्वर के भाव में सकुचाहट थी।
"इन्हीं प्रत्यक्ष बनी गवाह वादियों में कभी प्रेम खिलखिला उठा था , बसंत के संग और भी बासंतिक हो गया था। मंगला तो सुमेश के बिन अधूरी थी। और तो और उसने अपने माता पिता के घर के साथ साथ उनका नाम लेना भी छोड़ दिया था। माता पिता याद करते रहे पर वह ऐसी निष्ठुर निकली कि एक बार भी जाकर उसने उनकी सुद्ध लूना मुनासिब न समझा। ऐसा नहीं था कि वह उन्हें भूल गई थी परंतु सामाजिक बंधनों के दायरे में रहकर उसे माता पिता की इज्जत की भरपाई करना उसे सही लगा और उसने उनकी देहरी त्याग दी।
रीति रिवाजों और परम्पराओं में वे माता पिता का चेहरा आंखों के आगे तैर जाता तो वह भावुक हो जाती ,कई बरसों तक यह राज उसने सबसे छिपाकर दिल में रखा।इधर मां बाबू ने सोचा कि बेटी उन्हें भूल गई है। माता पिता बदहवास से कभी उसे याद करते तो सिवा आंसुओं के उन्हें कुछ न मिला। बदनामी के कलंक के दाग उन्होंने पोंछे भी परंतु जाति भेद-भाव से परे रिश्ते कब मानने वाले थे ?
सालों साल गुजर गए, धीरे-धीरे सब भूल गए। पर अम्मा बाबूजी के मन में बेटी के लिए टीस उठती रही। उस समय बड़े भाई ने भी चुपचाप जाकर बहन की नई गृहस्थी को जमाने के लिए पैसे भी दिए। कहा,"--बहन तेरी खुशी में ही हमारी खुशी है। तू खुश रह हमेशा।"
मंगला की आंख भर आई ,पैसे वापस भी करने चाहे परंतु,भाई ने न लिए। आखिर भाई ने ऐसा क्यों किया और यह पैसे किसने दिए ,अभी भाई की भी तो अपनी गृहस्थी नहीं जमी थी ,तो पैसों का सवाल ही नहीं था ,ये प्रश्न उसे कई दिनों तक उलझाए रहे।
एक दिवस अचानक :
मायके की चिट्ठी पढ़कर बेचैन हो गई जब पता चला , मां चल बसी। उस कंपकंपाती सर्दी में वह अकेले चल दी ,उन पहाड़ी पगडंडियों के पीछे, कई कोस दूर पैदल ,मां के अंतिम दर्शन के लिए।
पिता के कमजोर तन में व आवाज में कठोरता सब कुछ खत्म हो चुकी थी उन्हें लाचारी भरी पीड़ा दिखाई दी ,पिता को अकेले देखकर खूब रोई और पिता के बूढ़े शरीर को बेबस लाचार और कमजोर देखकर उसके मन की पीड़ा बह निकली।
वह उनसे गले लगकर खूब रोई।
आज मां नहीं थी और उनकी वह अंतिम चिठ्ठी उसके पास थी ,जो कुछ समय पूर्व उन्होंने उसके लिए लिखी थी , उसमें लिखा था ,"..
प्यारी मंगला, खूब प्यार। तुम सकुशल ठीक होंगी। तुम्हारे लिए कुछ पैसे बचा कर रखें हैं ,तुम ले लेना।मना मत करना ,जानती हूं गृहस्थी में बहुत खर्च होता है और ये सब बच्चों के लिए है। तुम्हारा भाई कह रह रहा था तुम उन पैसों को नहीं ले रहीं थीं ,बेटा वह मेरा आशिर्वाद था , तुम्हारे लिए। मां कितना भी बच्चों के लिए करे कम ही लगता है। मैं काफी दिनों से बीमार हूं और तुमको बताने के लिए मैं ने मना किया था ,सो नाराज मत होना ,अब तो डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया है।
सदा खुश रहो।
तुम्हारी मां।
पत्र पढ़कर वह आंसुओं को न रोक पाई ,कह उठी मां तुम कितनी अच्छी थी ,यह मुझे आज पता चला। इतने वर्षों तक अपना प्रेम दिल में छिपाकर रखीं और मैं नादान न समझ सकी। माफ कर दो मां और सुबुक उठी।
बाहर कोहरे की चादर बिछी थी और लोग अपनी दिनचर्या में व्यस्त थे। मंगला ने चाय की केतली फायर प्लेस से निकाली जिसमें गर्म गर्म चाय कपों में उड़ेलकर सुमेश की ओर बढ़ा दी।
बोली ,"--- आज मां को गए पूरे दस बरस हो चुके हैं ...सब कुछ बदल जाता है ,बस मां कभी नहीं बदलती।"
बाहर ठंड का प्रकोप जारी था ,तपन के लिए लोग अलाव जला रहे थे , जनवरी में बर्फबारी हो रही थी ,यह मसूरी पहाड़ों की रानी थी ....उसे याद आ रहा था कि कभी वह भी मां की रानी हुआ करती थी।
उसके दिल में वह नाम आज भी जीवंत हो उठा जब मां उसे रानी- रानी पुकारा करती थीं। वह मां की रानी ही थी वह भी एक वक्त था..। मां को सोचते सोचते उसकी आंख नम हो गईं। वह खिड़की से गगन के घुमड़ते बादलों को टकटकी लगा कर देखने लगी।
तभी सुमेश की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई..",रानी .! जरुर तुम मां को याद कर रही हो। मां मी चाहती थी तुम खुश रहो।"
कहकर उसने उसकी ठंडी पड़ चुकी उंगलियों में अपने गर्म स्पर्श से गर्माहट दे दी। दोनों एक दूसरे के प्रेम में पूर्णतया डूब चुके थे।
वैसे ही खो चुके थे ,जैसे घने जलकुंभ के भीतर बूंद अमृत की।

