अंधेरे का अवसान
अंधेरे का अवसान
दीया जल रहा था ..। बाती भी अपने दम से दम सुलग रही थी ..। तेल धीरे -धीरे कम हो रहा था, खत्म हो रहा था ।
एक आशा थी जो दीये को जला रही थी ...सब कह रहे थे 'दीया जल रहा है' जबकि, बाती जल रही थी यों, समझो बुझने की कगार पर हो चुकी थी ..।
तभी मालकिन आई उसने उसमें थोड़ा तेल उड़ेल दिया, दीया हंसा और बोला ," बाती और तेल सुनो ..! हाहाहा ...जले तुम दोनों ..और सब मुझे ही बता रहें हैं कि मैं टिमटिमा रहा हूं..। देखो मैं कितना सौभाग्य शाली हूं ..।"
ऐसा घमंड देखकर मां रौशनी को बुरा लगा कहने लगी ," मूर्ख अज्ञानी दीये, यदि तेल ना हो तो तू कैसे जलेगा ? यदि बाती ना हो तो तेरा वजूद अंधकार में गुम हो जाएगा ..। तू ऐसे मौज में रह कर घमंडी हो गया है , देखती हूं इनके अस्तित्व के खत्म होने के बाद तू कैसे उद्वेलित होगा ?"
तभी रात को दीया बुझ गया और और लौ भी बंद हो गई...तेल की अंतिम बूंद भी बाती के संग को गई ।
दीया अंधेरे में अज्ञानता में सिमट गया ।
परंतु मां ज्ञान की रौशनी का अस्तित्व कायम रहा..।