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chandraprabha kumar

Classics Inspirational

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chandraprabha kumar

Classics Inspirational

देवी गौरी और कौशिकी

देवी गौरी और कौशिकी

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देवी पार्वती को तपस्या के बाद महागौरी का रूप मिला और उन्हीं से कृष्णवर्णा कौशिकी का प्रादुर्भाव हुआ जो शुम्भ निशुम्भ घातिनी हुईं। 

शिव पुराण के अनुसार कथा इस प्रकार आती है- एक बार नीललोहित भगवान् शिव ने एकान्त में देवी पार्वती को काली कह दिया। शिवजी ने कहा-“तुम काली हो।”

तब सुन्दर वर्ण वाली देवी पार्वती श्याम वर्ण का आक्षेप सुनकर कुपित हुईं। वे अपने पति शिव जी से बोलीं-“आपने एकान्त में मेरी निन्दा की है। मेरे समस्त गुणों को व्यर्थ कर दिया। यदि पति के हृदय में मेरे काले रंग के कारण अनुराग नहीं है तो मैं अपने काले रंग को त्यागकर दूसरा वर्ण ग्रहण करूँगी या स्वयं ही मिट जाऊँगी।”

 ऐसा कहकर देवी पार्वती शय्या से उठकर खड़ी हो गईं और गौरवर्ण प्राप्ति के लिये तपस्या का दृढ़ निश्चय किया और शिव जी से जाने की आज्ञा मॉंगी। 

शिव जी ने कहा-“ मैंने तो हास- परिहास में यह बात कही थी,तुम कुपित क्यों हो गईं ?”

पार्वती बोलीं-“मेरे शरीर का गौरवर्ण न होने से आपको खेद होता है, नहीं तो परिहास में भी आपके द्वारा मुझे कालीकलूटी कहना कैसे संभव होता ? मेरा कालापन आपको प्रिय नहीं है। इसलिये तपस्या द्वारा गौरवर्ण प्राप्त किये बिना मैं यहॉं नहीं रह सकती।”

शिव जी ने कहा-“यदि अपनी श्यामता को लेकर तुम्हें दुःख हो रहा है तो तपस्या क्यों करती हो , मेरी या अपनी इच्छामात्र से गौरवर्ण हो जाओ”।

 पार्वती देवी ने कहा-“मैं आपसे रंग का परिवर्तन नहीं चाहती, ना ही स्वयं से बदलूँगी। अब तो तपस्या द्वारा आराधना से मैं गोरी हो जाऊँगी। “

फिर शिवजी ने पार्वती को रोकने की चेष्टा नहीं की और उन्हें तपस्या के लिये जाने दिया। 

पार्वती हिमालय पर्वत पर तपस्या के लिये चली गईं। जिस स्थान पर पहिले तप किया था, वहीं गईं। हिमालय पर अपने माता- पिता का दर्शन कर उन्होंने सारे आभूषण उतार दिये और तपस्विनी का वेश धारण कर अत्यन्त तीव्र व दुष्कर तपस्या में संलग्न हो गईं। 

तपस्या करते हुए जब बहुत समय बीत गया तो एक दिन एक व्याघ्र दुष्ट भाव से वहॉं आया, पर पार्वती देवी के निकट आते ही उसका शरीर जड़वत् हो गया और वह चित्रलिखित सा दिखाई देने लगा।

 पार्वती उसे देखकर विचलित नहीं हुईं। व्याघ्र भूख- प्यास से पीड़ित हो रहा था इसलिये वह देवी को अपना भोजन समझ निरन्तर उनकी ओर देख रहा था। 

 पर देवी के हृदय में यह भाव आया कि “यह व्याघ्र दुष्ट वन- जन्तुओं से मेरी रक्षा कर रहा है, मेरा उपासक है।” यह सोचकर देवी ने उस पर कृपा की। 

 देवी की कृपा से व्याघ्र को देवी के स्वरूप का बोध हुआ, उसकी भूख- प्यास मिट गई, अंगों की जड़ता दूर हो गई। नित्य तृप्त हो गया। और भक्त होकर उनकी सेवा करने लगा , अन्य जीव-जन्तुओं को वहॉं से खदेड़ने लगा। 

देवी की तपस्या तीव्र से तीव्रतर होती गई। उनकी उग्र तपस्या देख ब्रह्मा जी ने आकर उन्हें प्रणाम किया। देवी पार्वती ने योग्य अर्घ्य देकर उनका सत्कार किया। 

ब्रह्मा जी ने पूछा-“ तीव्र तपस्या से आप क्या मनोरथ सिद्ध करना चाहती हैं?”

पार्वती देवी ने कहा-“ मेरे वपु में जो यह कालापन है इसे सात्त्विक विधि से त्यागकर मैं गौरवर्ण होना चाहती हूँ। “

 ब्रह्मा जी ने कहा-“ यह तो आपकी इच्छा मात्र से हो जाता।आपने इसके लिये कठोर तप क्यों किया ? शुम्भ निशुम्भ दैत्यों को आपके हाथ से मारे जाने का वरदान प्राप्त हुआ था। आपके द्वारा जो शक्ति रची या छोड़ी जायेगी, उसी के द्वारा उनकी मृत्यु हो जायेगी”।

ब्रह्मा जी के ऐसी प्रार्थना करने पर गिरिराजकुमारी पार्वती ने सहसा अपनी काली त्वचा का आवरण उतार दिया और गौरवर्णा हो गईं। 

 काली त्वचा जो त्यागी गई थी वह उनकी शक्ति से काले मेघ के समान कान्तिवाली कृष्णवर्णा कन्या हो गई। देवी की वह मायामयी शक्ति ही योगनिद्रा और वैष्णवी कहलाई। वह अष्टभुजा थी ।मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट था। देवी ने अपनी इस शक्ति को ब्रह्मा जी को दे दिया। वह शक्ति कौशिकीकहलाई ।

 ब्रह्मा जी ने कौशिकी को सवारी के लिये एक प्रबल सिंह प्रदान किया। कौशिकी देवी ने समरांगण में दैत्य शुम्भ और निशुम्भ को मार गिराया। 

 पार्वती देवी गौरी होकर तपस्या से निवृत्त हुईं। और सिंह को साथ लेकर अपने माता-पिता का दर्शन कर मन्दराचल चली गईं, जहॉं महेश्वर विराजमान् थे। उनके तपोवन के वृक्ष उन पर फूलों की वर्षा करने लगे, विहंगम कलरव करने लगे। देवी की देह की दिव्य प्रभा से दशों दिशायें उद्दीपित हो उठीं। 

 शिव जी ने पार्वती देवी से कहा-“देवताओं की कार्य सिद्धि के लिये ही मैंने उस समय उस दिन लीलापूर्वक व्यंग्य वचन कहा था । तुम्हें यह बात अज्ञात नहीं थी, फिर तुम कुपित कैसा हो गईं ? हम और तुम अग्नि सोम स्वरूप हैं, वाणी और अर्थरूप हैं।ऐश्वर्य का सार एकमात्र आज्ञा ही है और वह आज्ञा तुम हो “।

यह बात सत्य जान पार्वती मुस्करा कर रह गईं। देवी ने कौशिकी के विषय में कहा-“ मैंने जिस कौशिकी की सृष्टि की है, वैसी कन्या न तो इस लोक में हुई है , न होगी। उसने समरांगण में शुम्भ निशुम्भ का वध कर उन पर विजय पाई।”। देवी ने उसके बल पराक्रम का वर्णन किया। वे देवी सदा लोकों की रक्षा करती रहती हैं।


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