chandraprabha kumar

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chandraprabha kumar

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दिन में ल्यूसर्न से ट्रॉंस यूरो रेल -यात्रा

दिन में ल्यूसर्न से ट्रॉंस यूरो रेल -यात्रा

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   काफ़ी समय से योरोप भ्रमण की सोच रहे थे। जब लन्दन जाना हुआ तो सोचा योरोप भ्रमण का अच्छा मौक़ा है।वहॉं से पहले पेरिस गये, वहाँ विश्व प्रसिद्ध एफिल टावर देखी ।पेरिस से स्विट्ज़रलैंड गये ,वहॉं ल्यूसर्न और माउण्ट पिलाटेस का प्राकृतिक भव्य सौन्दर्य देखा। ल्यूसर्न से ट्रॉंस यूरो ट्रेन रोम जाने के लिये सुबह 6.40 पर पकड़ी। स्विट्ज़रलैंड के सुन्दर दृश्य को पुनः पुनः देख लेने का लोभ ही हमको दिन से यात्रा करने के लिए प्रेरणा देने वाला बना। नहीं तो रात की ट्रेन से भी हम रोम जा सकते थे। पर फिर लगा कि इन दृश्यों को रात में नहीं देख पाएँगे , दिन की ट्रेन ही ठीक है। 

     अब स्विट्ज़रलैंड की सुन्दर दृश्यावलि ऑंखों के आगे से गुजर रही थी। देख -देखकर मन अभिभूत हो रहा था। बाहर के वातावरण का मानव- मन पर कितना प्रभाव पड़ता है, यह आज ही पता चला। पंडित नेहरु ने कहा था-" मैं प्रकृति के बीच जाकर अपनी थकावट भूल जाता हूँ और तरोताज़ा बनकर लौटता हूँ।"

    यह बात ठीक ही लगती है। ज़िन्दगी से कितनी शिकायतें हैं। इन बीस वर्षों में लगता है कुछ नहीं घूमा, कुछ नहीं सीखा। आज यहाँ आकर सारी शिकायतें धूमिल हो रही है। बस एक चीज़ मन प्राणों में समाई है- सामने बर्फ़ ढके धवल उत्तुंग पर्वत शृंग ,उन पर चमकती सुनहरी धूप ,चोटी पर बैठा बादल का टुकड़ा ,नीचे बहती नदी ,हरियाली,तरु श्रेणियॉं, हरा-भरा श्यामल हरित शाद्वल,बीच -बीच में छोटे छोटे मकान एक तरफ़ ,सब कुछ कैसा तो अनोखा आह्लाद  दे रहा है।इस विराट् सौन्दर्य के सामने अपनी चिन्तायें कितनी तो नगण्य जान पड़ती हैं। भैया ने लिखा था कि-" मुझे आशा है कि तुम और गुणशीला होकर लौटोगी।"

      और मैं आज इस क्षण सोच रही हूँ कि- "सच में अब मैं वही नहीं हूँ, जो पहिले थी। कितनी ही शिकायतें यहाँ आकार पिघलकर बह गई हैं। नया आनंद, नयी स्फूर्ति महसूस कर रही हूँ। लग रहा है कि हर मोड़ पर हम ज़िंदगी नए सिरे से शुरू कर सकते हैं। हाँ ,जो खोया है वह कभी वापस नहीं मिलता। जो क्षण बीत चुके ,उन्हें हम लौटा नहीं सकते। जो दुख उठा चुके ,उनमें नए रंग नहीं भर सकते। पर अभी जो अध्याय ज़िंदगी के खुल रहे हैं ,उन्हें चटक रंगों से सजा सकते हैं कि उनके सामने पिछले फीके रंग और फीके हो जाएँ। सुनहरी रेख के समान ज़िंदगी का नया फ़्रेम बन सकता है।"

   विचार प्रवाह चल रहा था- "अपनी दो नन्हीं कलियों सी बेटियों को, जो हमारे ऑंगन में खिलने आईं ,उन्हें अपने प्यार से हमने कितना सजाया, संवारा ? याद नहीं आता कि कभी मन भर कर उन्हें प्यार किया हो। उन्हें दबाते डाँटते ही ज़िन्दगी गुजर गई। सुख के दिन पीछे कभी के लिए टलते रहे और वह कभी, कभी नहीं आया। इस समय मन कर रहा है कि कैसे तो उन्हें बाहों में बॉंध लूँ, और जितना ज़्यादा उनको सुख पहुँचा सकती हूँ , पहुँचा दूँ।उन दोनों के साथ हर छुट्टियों में हम लोग कहीं घूमने का प्रोग्राम बना सकते हैं , दस- बारह रोज़ के लिए ही सही। अपना घर वास्तविक घर बना सकते हैं जो प्यार से सजा संवरा रहे। हमने अपने बच्चों पर क्या मेहनत की ? क्या उनका जीवन हम ज़्यादा सफल और सुन्दर नहीं बना सकते ? यदि हमारे पास धन ज़्यादा नहीं भी है, तो क्या मानवीय गुणों से अपने को नहीं सजा सकते ? आलस ,प्रमाद ,निद्रा को त्यागकर सतत जागरूक रहना ही प्रसन्न रहने का मंत्र है। भला-बुरा जो कुछ है, भगवान् पर छोड़ते जाएँ, प्रसन्न मन से कर्तव्य कर्म करते जाएँ ।"

   प्रकृति में जो दीख रहा है, वह प्रतिपल नवीन है। वही ऊँचे पर्वत, वही बादल, बर्फ़, धूप, पेड़, ढलती ऊँचाइयॉं ,हरे रंग के गहराते धुँधलाते शेड, पर फिर भी प्रतिपल नवीन।

   अभी अभी वह पर्वत सामने से दूर चले गये। एक में गुँथा दूसरा गिरिशृंग, मिलनस्थल पर दोनों के झुकते स्कन्ध, और वहाँ से उभरते हरित पल्लवों से सज्जित द्रुम।फ़र व स्प्रूस के पेड़ों से ढके पर्वत, माथे पर शाश्वत हिम का किरीट साजे स्विस आल्पस। उस पर वलयाकार जाती हमारी ट्रेन। पर्वत की मेखला सी बनकर उसके दूसरी पार हमको ले जा रही है। रात आठ बजे तक रोम पहुँचेंगे। 

      ल्यूसर्न में स्ट्रीमर,क्रूज़, नदी व ल्यूसर्न लेक का सौन्दर्य देखकर आखें अघाती नहीं थीं । वहॉं पिलाटेस पर्वत के शृंग पर चेस्टनट वृक्षों की छॉंह तले मौन बैठकर आँखों से वहाँ का सौंदर्य पी रहे थे।कैमरे की ऑंख उन दृश्यों को पकड़ नहीं पाती। कैमरे के लिये सही कोण, सही प्रकाश, वाइड एंगिल लैंस चाहिये, फिर भी पकड़ाई में नहीं आता सब कुछ। चित्रकार चित्रपट व तूलिका लेकर बैठे तो भी चित्रित नहीं कर सकेगा उस प्रकृत सौन्दर्य को। प्रकृत दृश्य के एक छोटे से अंश को बनाने में ही दिन भर लगेगा। फिर यहाँ तो प्रतिपल नवीन सी लगती दृश्यावलियॉं हैं। मैं कॉपी में अपनी अनुभूतियों को कहॉं तक लिखूँ ?जितनी देर लिखती हूँ, उससे हज़ारों गुना ज़्यादा अनुभूतियॉं हैं। शब्दों का भंडार कम है। शब्दों के भंडार से एक से एक उत्तम शब्द चुनकर लाऊँ तो भी यह सौन्दर्य शब्द व्यक्त नहीं कर पायेंगे ।

   तुलसीदास रामरूप का वर्णन करते करते आत्मलीन होते थे, अपने परमेश्वर के श्यामरूप की झाँकी का वर्णन करते उनकी लेखनी थकती नहीं थी।मैं कहाँ से वर्णन करूँ यह अद्वितीय सुषमा। यहॉं कण कण में राम सौन्दर्य बिखरा है। लगता है कि राम यहाँ विराट् होकर विराज रहे हैं। "दुनिया में जो जो विभूतिमत् ऐश्वर्ययुक्त सत्त्व है, वस्तु है, उसको मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान"- श्री कृष्ण का यह दिव्य वाक्य यहाँ सही चरितार्थ है। मानव हाथों ने इस सौन्दर्य को सँवारा है ,निखारा है ,इसको पास से निरखने परखने के साधन दिए हैं। 

        क्या कभी कल्पना कर सकते थे कि इस आरामदेह रेल के गद्देदार कुशन पर बैठकर खिड़की के दोनों तरफ़ से गुजरता आल्पस गिरि का सौन्दर्य हम देख सकें। ट्रेन घूमती है, उसी के साथ ही दृश्यावलियॉं घूमती हैं। कभी हमारे बायें तरफ़ इठलाती नदी और आसमान को नापते पर्वतों की ऊँचाई है, तो कभी जादुई स्पर्श से नदी और वही पर्वत दाहिने तरफ़ आ जाते हैं। पहाड़ों के ऊपर बीच -बीच में बने लाल रंग के मकान धवल में लालिमायुक्त लावण्य दे रहे हैं। अभी इधर देखते हैं तो लगता है कि दूसरी तरफ़ के दृश्य निकल न जायें।उधर देखते हैं तो लगता है कि इधर के दृश्य निकल न जायें।अनुपम प्रकृति की छटा है। 


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