chandraprabha kumar

Abstract

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chandraprabha kumar

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ज़रावस्था और अकेलापन

ज़रावस्था और अकेलापन

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भरे पूरे परिवार में रहने के बाद धीरे धीरे अकेलेपन की ओर जाते व्यक्ति की व्यथा कोई समझ नहीं पाता, और वह कहे भी किससे। कोई सुनने वाला भी नहीं है। व्यक्ति इतना अकेला भी दुनिया में हो सकता है कि कोई उससे बात करने वाला न हो, कोई उसका हाल जानने वाला न हो। कोई सहानुभूति देनेवाला न हो। शरीर पर अपना बस नहीं, अपना कोई काम बिना किसी के सहारे के नहीं हो सकता। बिस्तरे से अपने से उठ नहीं सकते, चलकर कहीं जा नहीं सकते, अपनी मर्ज़ी का खा नहीं सकते। पूरी तरह से दूसरों की सेवा पर आश्रित ज़िन्दगी । कैसे ऐसी ज़िन्दगी में बहार आये ?

 अभी एक जगह गये। वयोवृद्धा है। जीवन के तिरानबे साल पूरे कर लिए। नब्बे वर्ष की उम्र तक हाथ पैरों से सक्षम थीं, अपना काम स्वयं करती रहीं,अपना खाना खुद पकाती थीं, अपने कपड़े खुद धोती थीं,ख़ुद प्रेस करती थीं। घर की सफ़ाई भी स्वयं करती थीं। अब तीन साल से अशक्त होने से बिस्तर पर हैं। गिरने से चोट लग गई। चोट तो ठीक हो गई पर पैरों में चलने की ताक़त नहीं आई। असहाय बना गयी। अकेलेपन का जीवन दूभर बन गया। अब दूसरों के सहारे जी रही थीं। सब काम दूसरों के सहारे होता था। जिन्दगी पलट गई। अब कोई काम मन मुताबिक़ नहीं हो पाता था। 

 हम उनसे मिलने गये थे। उनका रात के भोजन का समय हो रहा था। उस समय हमारे सामने ही उनका खाना आ गया। पार्ट टाइम काम करने वाला था। वहीं रात का खाना देता था। सुबह एक टाईम खाना बनानेवाली आती थी, वही रात तक की सब्ज़ी बनाकर रख जाती थी। रात को वहीं सब्ज़ी गरम करके दे दी जाती थी।

हमारे सामने उनका रात का काम करने वाला आया। सब्ज़ी गरम करके खाने की प्लेट ले आया। आलू मटर पूरी की रसेदार सब्ज़ी और तोरी। एक प्लेट में तीन छोटी छोटी पूरी। पूरी उसने स्वयं बनाई थीं। प्लेट उसने सामने रख दीं। उन्होंने खाना शुरू किया। पर लगता था कि खाना पसन्द नहीं आया। पर बोलीं कुछ नहीं। धीरे धीरे खाना शुरू किया , कुछ खाया कुछ छोड़ा, खाया नहीं गया। 

 वे मेरे से बोलीं- “ इतनी छोटी छोटी पूरी बनाकयर लाया । पूरी मोटी हैं। ठीक से सिकी भी नहीं। कुछ कच्ची कुछ अधपकी सी, एक तरफ से ज़्यादा सिकी हुई। पूरी बनाना भी नहीं आता। किस बात के पैसे ले रहा है। मैं कुछ बोलती नहीं। जैसा है खा लेती हूँ। यह तोरी की सब्ज़ी सुबह वाली बनाकर गई है। उसको तोरी की सब्ज़ी बनानी नहीं आती।” यह कहकर उन्होंने तोरी की सब्ज़ी अलग हटा दी। किसी तरह उन्होंने खाना पूरा किया। 

 फिर कहने लगीं- “ तीन पूरी बनाकर लाया, तीन किस हिसाब से लाया ? या तो एक लाता, या दो लाता या चार लाता। तीनों पूरी भी ठंडी लाया । कहना बेकार है सब अपने मन से करते हैं किसी को कुछ कह भी नहीं सकते ।

 वे कहने लगीं-“ जैसा भी बना खाना पड़ता है। कुछ कह भी नहीं पाते। किससे कहें। ताजी सब्ज़ी भी शाम को नहीं बनती। सुबह वाली ही गर्म करके दे दी जाती है। मैंने अब कुछ बोलना भी छोड़ दिया है। किसी को कुछ नहीं कहती।”

 उनकी बात सुनकर व्यथा हो आई। दूसरे के भरोसे होने से ज़िन्दगी कितनी लाचार हो जाती है। सेवा धर्म सबसे कठिन है। और आजकल सेवा करने वाले कहॉं मिलते हैं। जो सेवा करने आते हैं उन्हें सेवा से नहीं अपने पैसों से मतलब है और अपने आराम व सुविधा से मतलब है। वृद्ध लाचार बीमार की सेवा से उन्हें कोई मतलब नहीं। 

 अकेले लाचार व्यक्ति के लिए जीवन मुश्किलों से भरा हो जाता है। कोई आर्थिक दिक़्क़त नहीं हो तो भी आराम नहीं मिल पाता और पैसा पानी की तरह बहता है। अपना घर छोड़कर कोई भाई या बहिन भी कितने दिन रह सकता है। एकाकी जीवन सुनसान हो जाता है। कान से सुनने में दिक़्क़त होती है , तो न दूसरे की बात समझ पाते हैं, न अपनी समझा पाते हैं। 

 घर में छह- सात नौकर माली होने पर भी किसी तरह का सुख नहीं। काम पड़ा रह जाता है। कोई अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझता, क्योंकि न कोई कहने वाला है , न देखने वाला है। ऐसे समय में परिवार की आवश्यकता महसूस होती है, जहॉं सब एक दूसरे का दुःख सुख बॉंट लेते हैं। 

बीमार और वृद्ध व्यक्ति के लिए दिल में संवेदना होनी चाहिये और उसकी ज़रूरतों का ध्यान रखा जाना चाहिए। 


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