chandraprabha kumar

Others

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chandraprabha kumar

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उन्मुक्त आसमान के नीचे

उन्मुक्त आसमान के नीचे

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    आजकल के शहर के फ़्लैट, जहॉं न तो ऊपर की छत अपनी, न नीचे की ज़मीन मैदान अपना। मिट्टी से कोई स्पर्श नहीं। छोटे छोटे कमरे। कोई आँगन नहीं। सूर्य रश्मियों में बैठने को भी तरस जाते हैं। 

       बचपन में जो हमारा मकान था, उसकी छत पर धूप आती थी। छत पर धूप में चटाई बिछाकर बैठने का अपना सुख है। मकान का एक खंड चौमंजिला था । तिमंज़िले पर मकान की थोड़ी छत कच्ची रखी गई थी अर्थात् छत मिट्टी की थी, उस पर बरसात में दूब घास उग आती थी, और सब जगह हरियाली हो जाती थी। जहॉं घूमना बहुत अच्छा लगता था। सुबह का सूर्योदय एवं शाम का सूर्यास्त उन्मुक्त गगन के नीचे देखते थे। शाम में तारों की छाँव में चन्दा की चॉंदनी में बैठते थे। 

   मकान की दूसरी मंज़िल के एक हिस्से में पढ़ने का कमरा था खूब बड़ा सा। जहाँ सभी भाई- बहिन बैठकर पढ़ते थे। कमरे के आगे खूब बड़ी सी फैली छत थी, जहॉं ख़ूब धूप आती थी। जब मन हुआ धूप में बैठकर पढ़ते। वहॉं बान की खटिया डाली हुई थी। वहीं अलसाई धूप में लेटकर विश्राम करने की अच्छी जगह थी। 

        चौमंजिले पर जाकर चन्दन छट का व्रत खोलते। वह बचपन में चन्दन षष्ठी का व्रत करती नन्हीं नन्हीं बहनें। भूख से हाल बेहाल, प्यास से बेदम। गला होंठ सूख रहे हैं, पर मॉं- पिता का अनुशासन तोड़ने की हिम्मत तो दूर रही ,कल्पना तक नहीं। मॉं- पिता ने भी पानी तक नहीं पीने दिया, बहलाया फुसलाया, व्रत कराया। और चंद्र दर्शन कर खाना होता है ,तो भाद्रपद की षष्ठी को चौमंजिले की पक्की छत पर जाकर चन्द्र दर्शन करते। वहीं चटाई बिछाकर बैठ जाते थे। चाँद का दर्शन कर अर्घ्य देते थे, फिर व्रत का पारण होता था । पानी में भीगे बादाम पिता अपने हाथ से छील छीलकर खिलाते, साथ में दूध और फल। कुछ उस समय ठीक से खाया नहीं जाता था। पर शुभ्र ज्योत्स्ना धवल रात्रि में जगमग तारों तले सुन्दर सुखद बयार के साथ सब कुछ मनभावन लगता था। जो आज भी स्मृति में बसा है। 

     छत पर बचपन के खेल जुड़े थे। कहीं छत पर पक्के गमले में धनिया बोया था। तो कहीं छत पर हरी दूब पूजा के लिए तोड़ी थी। नन्हें पाँव छत पर घूमते फिरते थे। धनिये के गमले में पानी देने के लिए लोटे में जल भरकर तिमंज़िले पर सीढ़ियॉं चढ़कर पानी देने जाते थे। मॉं के कहने पर वहाँ से ताजे- ताजे हरे धनिये की कुछ पत्तियाँ सब्ज़ी सजाने को लाते थे। उस समय तिमंजिले तक आना जाना खेल लगता था।बचपन की प्रिय क्रीड़ास्थली ।कितनी इक्कल दुक्कल, कितने टिग्गू वहाँ खेले। 

      कितनी ही बार दूसरी छत से दोस्त को बात करने के लिए बुलाया और प्रतीक्षा में लाइनें खींची थी। ऊपर चढ़कर अपने चारों तरफ़ का नज़ारा, दूर दूर तक फैले मकान, सड़क और पेड़ देखे। जहॉं तक निगाह जाती थी दूर क्षितिज तक कहीं कोई रुकावट अवरोध नहीं। यही ऊँचाई का मज़ा था। 

   तिमंज़िले पर कुछ हिस्सा सोने के लिये पक्का करा लिया गया था, पर बाक़ी कच्चा ही था। कभी ध्यान ही नहीं आया कि पक्के मकान की कुछ छत कच्ची क्यों है। गर्मियों में यहाँ छत पर सोने चले जाते थे खुले आसमान के नीचे। अच्छी ताज़ी हवा मिलती थी ,पंखे की भी ज़रूरत नहीं पड़ती थी। ऊपर खुले आसमान में देखते कि ध्रुव तारा कहां है , तारों का सप्तर्षि मण्डल कहां है। खुले नीले आसमान के तले सोना अच्छा लगता था।

            घर का मुख्य बड़ा आँगन बाहर था जिसे सहन कहते थे। यह इतना बड़ा था कि यहीं हम बचपन में गुल्ली डंडा खेला करते थे या बैडमिंटन  की प्रैक्टिस किया करते थे। सारे फ़ंक्शन यहीं हो जाते थे। कहीं बाहर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। 

        तब सुबह धूप से सारा घर ऑंगन जगमग करता था। धूप सेंकने के लिए कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं थी। विटामिन डी की कोई कमी नहीं होती थी। सूर्य रश्मियाँ अपने आंगन में ही आ जाती थीं। आजकल तो फ़्लैट में किसी और की छत पर अपना फ़र्श और किसी और की छत के नीचे अपनी सीलिंग। न ऊपर बैठने की जगह , न बाहर निकलने की जगह। कबूतरखाने की तरह डिब्बा बन्द। बस सिर छुपाने की जगह अर्थात् केवल सोना ,खाना- पीना , इतनी ही जगह । पढ़ने की जगह तक निकालना मुश्किल । बस डाइनिंग टेबुल या ड्राइंग रूम की टेबुल पर किसी तरह काम चलाओ। छत पर शान्त जगह पर बैठकर पढ़ने का नज़ारा ही कुछ और होता है। 

   हमने इसी कारण शहर में फ़्लैट नहीं लिया था। सोचा था कि छोटी सी जगह में एक छोटा सा मकान बनायेंगे, जहॉं छत पर सुबह -सुबह सूर्य रश्मियों में स्नान करेंगे। चारों तरफ़ से छनछनकर खूब धूप आयेगी। निभृत एकान्त, ऊपर छत,चारों तरफ़ शीशे और तेज धूप हुई तो पर्दे खींच दिये। कितना सुन्दर , कितना अच्छा, सुख दुःख से दूर अपना एक एकान्त कोना, सूर्य रश्मि गृह। कल्पना की उड़ान ऊँची होती गई। मन में सपने बसते गए। कैसा तो होगा अपना घर ,सबसे अलग सबसे निराला। जहाँ आकाश ही आकाश का अपार विस्तार। 

   पर जब मकान बनकर तैयार हुआ, देखा कि छत ढलवाँ बन गई,झोंपड़ी पर जैसे छत पड़ती है। कहा गया की आजकल का यही फ़ैशन है, ऊपर चढ़कर करना क्या है, यह नये लुक का कॉटेज नुमा मकान है,यहॉं कमरे के आगे की छोटी टैरेस छत की तरह काम देगी। झनझनाकर सपनों का घर टूट गया। अग़ल- बग़ल इतने मकान हैं कि न पूरा आसमान दिखाई देता है, न सूरज की पूरी धूप आती है। लगता है कि सपने भी चिढ़ाते हैं।

   सही कहा है सन्तों ने, दुनिया से लगाव ठीक नहीं । जब जहॉं जैसा है , सन्तोष करो। सन्तोष परम धन।वह बचपन गया। वे बचपन की बातें हैं। परिवर्तन जीवन का नियम है। तभी प्रकृति क्षण - क्षण नवीन है। मानव ही पिछली यादों को संजोये रहता है। 



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