वो पहली मुलाकात
वो पहली मुलाकात
बात 1978 की है पड़ोस में शादी थी। उनके घर बहुत से मेहमान आएं हुए थें जिसमें चार पांच लड़के लगभग एक ही उम्र के थें उन सभी को तीसरे मंजिल पर कमरा मिला था ठहरने के लिए। शादी ब्याह का मौका ऐसा होता है कि सबके सब बड़े रोमांटिक हो जाता मजाक मस्ती और धमाचौकड़ी ...... बड़े छोटे के रिश्ते में थोड़ी छुट सी मिल जाती है। फिर भी लड़कों और लड़कियों को अलग-अलग रखा गया था।
मैं अपने छत पर कपड़े फैलाने निकली थी फैलाते फैलाते नज़र पड़ोसी के छत्त पर चली गई चार पांच लड़के खड़े थें जिनमें एक अजनबी बड़ा ही खूबसूरत चेहरा आंखें चमकदार , घुंघराले बाल , तीखे नाक गौर वर्ण और प्यारी सी मुस्कान .....गजब का आकर्षण ...उलझ गयी बस एक टक देखती ही रही ... यूं तो उस अजनबी चेहरे पर सहज मुस्कान थी मगर न जाने क्यों वेध गई मुझे भीतर तक ....लगा जैसे कहीं देखा है कभी पहले। न जाने कब तक देखती रहती राजू भैया ने जोर से बोला क्या हुआ चुहिया ? अंगुर ढूंढ रही हो ? मैं एकदम से हड़बड़ा गई "नहीं नहीं भैया वो वहां भूईली था आपके दोस्त के शर्ट पर वही देख रही थी कहां तक जा रहा है ? " क्या भूईली है कहां किसके शर्ट पर ? सब एक दूसरे के शर्ट पर ढूंढने लगे और मैं अंदर भाग गयी। अंगुर के पेड़ पर अक्सर भूईली रहता है और यह शरीर के जिस भाग को छू दे घंटों खुजली होती रहती है इसलिए सब चौकन्ना हो गये। दरअसल वो अंगुर के झाड़ के पास खड़े होकर सुबह का नजारा देख रहें थें चुकी वो तीसरे मंजिल पर थें और मैं अपने छत्त के दूसरी मंजिल पर थी इसलिए देख नहीं सकी वो लोग किस अलाव पर आंखें सेंक रहें थें ? हां मुझे भी एक अलाव मिल गया जहां पहली नजर में ही कुछ कौंध गया था ....। दिन भर मन उलझा रहा कि आखिर अजनबी कौन हैं ? किसके दोस्त हैं ? रिश्तेदार तो हो नहीं सकते क्योंकि उनके चारों भाइयों के सभी रिश्तेदारों को खूब अच्छे से पहचानती थी। पहले कभी नहीं देखा था। पहली मुलाकात में ही इतना सहज सरल मुस्कान .... जैसे वो भी मुझे जानते हों ?
जल्दी जल्दी काम निपटा कर मैं पड़ोसी के घर पहुंच गयी। वहां पर देखा तीसरी वाली बहू से गुफ्तगू चल रही थी , चुपचाप सुनने लगी बात कुछ खास नहीं लेकिन आवाज बड़ी मधुर लगी तभी बाकी के तीन चार लड़के आएं और सब के सब बाजार चले गए। तब मैंने पूछा कि अजनबी कौन हैं पहले कभी देखा नहीं है ? उन्होंने बताया "मेरा चचेरा भाई है पहचाना नहीं अमन के साथ तो हमेशा ही रहता है। " अमन उनका सगा भाई है उनसे तो बहुत बार मिल चुकी थी खैर .... इससे ज्यादा पूछने की हिम्मत नहीं हुई। रात को बहू भोज में फिर देखा चुपके-चुपके ... एक दो बार मेरी चोरी पकड़ी गई फिर भी नजरें उन्हें ही ढूंढती रही। धीरे धीरे सब मेहमान चले गए वो अजनबी भी लेकिन कुछ तो ऐसा खास था उनमें कि चर्चा का विषय बन गये थें। भैया लोगों ने भी कहां एक बड़ा ही हैंडसम और यूनिक नेम गेस्ट थें। उनकी स्माइल बड़ी अच्छी थी और बातें भी .... मैं सोचने लगी कि वास्तव में वो अजनबी "सिंगल पीस मैन " हैं सिर्फ मुझे ही नहीं औरों को भी प्रभावित कर गए। बहुत दिनों तक चर्चा होती रही। मैंने भैया से बोला कि मुझे भी बहुत अच्छे और कुछ अलग से लगे आप उनसे दोस्ती कीजिए फिर एक दिन लेकर आइएगा। भै
या ने कहा हां मैं जाऊंगा उनके घर कुछ नोट्स लेना है उनसे। मेरी आंखों में वो चेहरा कौंध गया और मैंने राहत की सांस ली।
कुछ दिन बाद भैया उनके घर गए और धीरे-धीरे दोस्ती हो गई। काफी दिनों तक मिलना जुलना चलता रहा लेकिन भैया ने घर पर नहीं बुलाया और ना ही कभी दर्शन हुआ। दिन महीने साल गुजरते रहें। छः साल बाद हमने वो घर बेच दिया और दूसरी जगह चले गये लगभग दो साल बाद फिर हमने घर बदल लिया और नये मोहल्ले में पहुंच गये काॅलेज चल रहा था पढ़ाई में थोड़ी दिक्कत आनी लगी थी। बड़े भैया ने मैथ्स के लिए अपने एक मित्र को बुलाया। दूसरे दिन वो नियत समय पर आ गये मुझसे पूछा और क्या क्या विषय है ? और कहां से बाकी विषयों का नोट्स ले रही हो ? मैंने बताया कि कहीं से कोई नोट्स नहीं ले रही हूं खुद ही पढ़ती हूं। "छोटे भैया काॅलेज में प्रोफेसर हैं तो दूसरे किसी से पढ़ नहीं सकती और भैया मुझे पढ़ाते नहीं हैं डांटते रहते हैं इसलिए मैं किसी से नहीं पढ़ती हूं।" वो हंसने लगे बोले चलो ठीक है किसी से नहीं पढ़ना। "मेरा जिगरी दोस्त है बस ये समझो दो जिस्म मगर एक जान हैं हम , दांत काटी रोटी वाली दोस्ती है।" बस ये समझना वो भी मैं ही हूं और मुझसे तो मैथ्स पढ़ती हो न ? ठीक उसी तरह वो तुम्हें नोट्स दे दिया करेगा तुम लिख कर वापस कर देना। प्रकाश को बुरा भी नहीं लगेगा कि जिस विषय का वो प्रोफेसर है उसी विषय के लिए तुम किसी दूसरे से मदद ले रही हो। मैं राजी हो गयी दूसरे दिन शाम को आने का वादा करके चले गए। मैंने घर में सभी को बता दिया कि रोहित भैया अपने किसी दोस्त को लेकर आने वाले हैं। यूं तो ड्राइंगरुम हमेशा ही व्यवस्थित रहता है फिर भी मैंने सरसरी निगाहों से देखा और किताब कॉपी लेकर बैठ गई। नियत समय पर आ गये और साथ में जिन्हें लेकर आएं थें उन्हें देखकर होश ही उड़ गये ..... ये वही अजनबी थें सात साल पहले जिनके आंखों में उलझ गयी थी जिनसे मिलने के लिए कितने जतन किए लेकिन मुमकिन नहीं हो सका और आज अचानक से आ गये ..... मैंने सोचा न था कि इस तरह हमारी मुलाकात होगी वो मेरे घर में , मेरे लिए , सिर्फ मेरे लिए आएं हैं .... खुशी का खजाना मिल गया था। जल्दी जल्दी मैंने सब कुछ बोल दिया अनाप-शनाप ......
वो बस मुस्कुराते रहें। बस इतना कहा कि "अब हर रोज आऊंगा तुम्हारी पढ़ाई लिखाई की जिम्मेदारी अब मेरी हो गई तुम्हारे पापा ने बोला है तो मैं उन्हें निराश नहीं करूंगा।" उसके बाद शुरू हो गया सिलसिला , वक्त के ऐसे पांबद की कड़ाके की सर्दी हो या तपती दोपहरी , बारिश हो या आंधी-तूफान जिस दिन जो वक्त देते ठीक उसी वक्त पहुंच जाते। बातें बहुत कम करते लेकिन काम अधिक करते थें। आएं थें सिर्फ पालिटिकल साइंस का नोट्स देने के लिए लेकिन वो हिंदी भी पढ़ाने लगे फिर मेरे लिए हिन्दी पढ़ कर नोट्स भी लिखने लगे कुछ दिनों बाद साइकोलॉजी भी ... फिर कॉलेज के दूसरे काम भी जा कर पूरा करवाने लगे। एन एस एस में कैंप लगा था जिसे ज्वाइन करना अनिवार्य था तभी सार्टिफिकेट मिलता नहीं तो साल भर का किया हुआ काम बेकार हो जाता मगर दोनों भैया ने मना कर दिया था और पापा खामोश हो गये थें। मैं बहुत रोई चिल्लाई लेकिन कोई नहीं पिघला तब मैंने धीरे से कहा कि था। उन्होंने मेरी कोआॅडिएनेटर से मिलकर बात की और बीच का रास्ता निकाला मैं रोज सुबह कैंप में जाऊंगी और शाम को लौट आऊंगी। इस तरह मैं भी खुश और परिवार वाले भी राजी हो गया। बहुत अच्छा रहा रहा हमारा कैंप। इसी बीच रामबृक्ष बेनीपुरी जी का जन्मदिन मनाने के लिए बेनीपुर जाने का निमंत्रण मिला। बड़ा ही रोमांचकारी यात्रा थी। हम सभी बस से बेनीपुर गये। वहां मनोज बेनीपुरी सर , उनकी मैडम और उनकी बहन के साथ पुरा परिवार हमारी खातिरदारी की। बहुत आनन्द से सारा दिन गुजार कर शाम को हम घर लौटे। इसी कैंप में एक और कोर्स करने का अवसर मिला मैंने उसका भी लाभ उठाया। आखिरी दिन सार्टिफिकेट मिल गया जिसे सबसे पहले उनको दिखाना चाहती थी जिनकी वजह से मिला था। घर पहुंच कर इंतजार करती रहती पल , मिनट और घंटे गुजरने लगे मेरी व्यग्रता बढ़ती रही ... हर आहट पर दिल धड़कता और नजरें मेन गेट की तरफ उठती और बूझ कर लौट आती। शाम के बाद रात हो गई बादल गरजने लगे बूंदें बरसने लगी .... पलकें बिछाए मैं बैठी रही पापा ने कहा "देखो अब नहीं आएंगे। मौसम खराब हो गया है। खाना खा कर सो जाओ।" "किसी जरूरी काम में फंस गये होंगे कल आएंगे तब दिखा देना।" फिर भी मैं बैठी रही कागज कलम लेकर लिखने लगी कविता शायद वह पहला दिन था जब किसी का इस तरह इंतजार किया था और वो पहला इंतजार ही व्यर्थ गया .... ऐसा ही भाव था उस कविता में। तभी कुछ आहट सी हुई थोड़ी गुनगुनाहट और दरवाजे पर दस्तक ....
मैं खुद कर उछल कर दरवाजा खोली ... मानो बरसों से प्रतिक्षा में बैठी थी .... मेरे मन के भाव उभर आएं और उन्होंने हल्के से मुस्कुरा दिया मैं इतराने लगी और फिर लिखी एक और कविता - "कुछ तो है मेरे दिल में खास ...वरना इस पहर चांद कैसे निकलता इधर ...!" और भी कुछ कुछ याद नहीं है पूरी पंक्तियां। खैर पापा ने कहा तौलिया दे दो भींग गये हैं कपड़े सुखा दो और अदरक वाली चाय बना दो। तौलिया तो दे दिया लेकिन चाय के लिए दीदी को बताया और निहारती रही उन्हें बालों को सुखाते हुए। घुंघराले बाल मुझे बड़े अच्छे लगते थें। न जाने क्यों एक शरारत सूझी उनके बालों को अंगुली में फंसाकर खींच कर देखने की ....। कुछ लोहे के छल्लों को देखा था एक गुड्डे गुड़िया के गर्दन ऐसे छल्ले वाले जो हिलते रहते थें बाद में जब टूट गई तो उसमें अंगुली फंसा कर बार बार खींचती और छोड़ देती .... ऐसा ही कुछ करने की इच्छा होती थी लेकिन हिम्मत नहीं हुई। बड़े ही गंभीर स्वभाव के व्यक्ति थे बचपन से ही बड़े बुजुर्ग जैसा हाव भाव दिखाते थें। कुछ लोग व्यंग्य भी करते थें कि "तुम्हारे सर तो जवानी में ही बुड्ढे हो गये हैं।" मैं इस बात पर चिढ़ जाती थी। वैसे सचमुच वो लड़कों जैसे नहीं लगते थें बड़े बहुत बड़े लगते थे और शायद यही कारण था कि मुझे बहुत अच्छे लगते थें उनके साथ बैठ कर मैं बहुत सुरक्षित महसूस करती थी। ऐसा लगता था कि अगर कभी किसी मुसीबत में पड़ी तो बहुत मजबूती से संभाल लेंगे। और जब मेरे मन को सहारा महसूस होता , मुझे अच्छा लगता था साथ में रहना तो लोगों की बात को अनसुना करने लगी। पता नहीं ये बात कैसे दिमाग में घर कर गई कि जिसके साथ रह कर सुरक्षित महसूस करूं वो ही मेरे लिए आदर्श पुरुष होगा। धीरे धीरे मेरी जिंदगी के हर फैसले में उनकी राय सबसे खास होने लगी और फिर एक दिन समझ में आया की सिर्फ और सिर्फ वही है मेरे जीवन में दूसरा कोई नहीं।
बड़ी अजीब सी बात है सात साल पहले जब पहली बार देखा था तभी मेरे भीतर कुछ शुरू हो गया था जो निरंतर चलता रहा .....। किस तरह सब कुछ अनायास ही होता चला गया। शायद इसे ही कहते हैं जन्म जन्मांतर का रिश्ता .... जो महसूस होता है। हजारों बार मुलाकातें हुई है लेकिन अंगुर के झाड़ के बीच छत पर की वो मुलाकात आज तक आंखों में बसी हुई है। जबकि सदियां बीत गयी।