पलों का कारवाँ
पलों का कारवाँ
पलों का कारवाँ कहीं आगे बढ़ गया
सुबह की सुनहली ठंडी धूप में
निकल पड़ी मैं एक दिन अपनी
यादों की नाव में।
अभी आगे चली ही थी धुन में अपनी
कि ज़िन्दगी से मुलाकात हो गई
पूछ बैठी कि,
ऐ ज़िन्दगी क्या दिया तूने मुझे।
बहुत सरलता से बोली वह
सोच कर तो देख
क्या नहीं मिला तुझे
सोचा तो मालूम हुआ,
मिला तो बहुत
खोया भी बहुत पर
सम्भालने का सलीका
ही नहीं आया मुझे।
और पलों का कारवाँ
कहीं आगे बढ़ गया।
हर सुन्दर पल को
मैंने नन्हे हाथों में लेकर
बहुत प्यार से अपनी
यादों से सींच कर
उस इक पल को परवान चढ़ाना चाहा,
पर देखते ही देखते
उन पलों का कारवाँ
कहीं आगे बढ़ गया।
हर पल के खूबसूरत मोड़ पर
मोतियों की माला
को रेशम के घागे में पिरो कर
अपनी यादों के सहारे,
गले से लगा कर,
उस पल को बड़े
यत्न से पालना चाहा
पर देखते ही देखते
उन पलों का कारवाँ
कहीं आगे बढ़ गया।
हर मनोहर पल को मैंने
रखा संजोकर
रंग बिरंगी यादों को
हर पड़ाव पर।
उस पल का दिल बहलाना चाहा
पर देखते ही देखते
उन पलों का कारवाँ
कहीं आगे बढ़ गया।
हर दिलकश नज़ारे को
मैंने काजल की तरह
आँखों में सजाकर
अपनी यादों को फिर
ताज़ा कर हर पल को देखना चाहा,
पर देखते ही देखते
उन पलों का कारवाँ
कहीं आगे बढ़ गया।
ज़िन्दगी ने हँस कर कहा
नाव के पतवार न छोड़
हर पल को जी
हर पल के पड़ाव को जी,
हर पल का खूबसूरत मोड़ देख
हर पल का नज़ारा देख
पर इन पलों को पकड़ने की
कोशिश न कर,
देखते ही देखते कहीं
इन पलों का भी कारवाँ
आगे न बढ़ जाये।