छद्म औरतें
छद्म औरतें
बहुत उलझन और बेचैनी
महसूस होती है
जब औरतों को कुछ एक
आवश्यक रिश्तों में कभी
बेबस और लाचार सा
या कभी शोषक मौकापरस्त
होते हुए देखती हूँ ।
सोचती हूँ कि इस
कशमकश की
रस्साकसी में
औरतें एक दूसरे को
समझने और राह देने की
सोच क्यों नहीं रख पातीं
क्यों रिश्तों को
समझने सहेजने के बजाय
अपना वर्चस्व चाहती है
एक दूसरे पर,
रचती है चक्रव्यूह
रिश्तों, उम्र, आंसुओं,
समर्पण, कर्तव्य, प्रेम
और न जाने क्या क्या
अस्त्र शस्त्र जैसे गुण
अवगुणों
का सहारा लेकर
खुद को सही
साबित करने को।
पूछती हूँ
कौन है दोषी
इन बेमतलब की
झिकझिक का
जो गाहे बगाहे उठती रहती है
जैसे चिंगारी कहीं
फूस में सुलगती रहती हो
मौका ढूंढती हो
जला कर राख कर देने का
किसी का दम्भ, किसी का स्वप्न
किसी का मान और कहीं कहीं
रिश्तों की मर्यादाएं।
क्या ये वो घुट्टी है
जो जाने अनजाने पीते
पिलाते आती है
ये ही औरतें
अपने जैसी प्रतिकृतियों को
की हो सामना अगर
विपरीत लिंग से
तो दिखे बने कोमल
त्याग की प्रतिमूर्ति
लेकिन भान होते ही
एक से अस्तित्व का
भिड़ जाएं
एक दूसरे को गलत
साबित करते हुए
अपनी कच्ची पक्की उम्र की
गरिमा को भूल कर
अभिनय का
चरम दिखाते हुए
खुद को निरीह,
गलत समझा जाने का
पाश फेंकते हुए।
शर्म आती है
ऐसी छद्म व्यक्तित्व की
हर उस औरत पर
जो मान सम्मान न दे सकें
एक दूसरे के स्त्रीत्व को
स्त्री हो कर।