स्त्री
स्त्री
वो संघर्ष करती है
अपनी ही मां की कोख में
अपने ही मां बाप से
अपने ही अस्तित्व के लिए।
वो संघर्ष करती है
दुनिया में आने पर
अपने वजूद के लिए
बुनियादी सुविधाओं के लिए
अपने परिवार का प्यार पाने के लिए
भाई की तरह मंहगे स्कूल के लिए नहीं
सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए।
वो संघर्ष करती है
खेलकूद में उसे कमतर न आंका जाए
पढ़ने लिखने में उसकी भी प्रशंसा हो
भाई के साथ साथ वो भी मुस्कुरा सके
बचे खुचे खाने के लिए।
वो संघर्ष करती है
कुछ अपनों की घूरती नजरों से
कुछ भूखे भेड़ियों के मंसूबों से
कुछ वहशी दरिंदों से
वासना के लाल लाल डोरे वाले नैनों से।
वो संघर्ष करती है
सामाजिक भेदभाव से
पुरानी मान्यताओं, परंपराओं से
रीति-रिवाजों, संस्कारों से
सड़ी गली , दकियानूसी सोच से।
वो संघर्ष करती है
कि उसे नुमाइश न बनाया जाए
दहेज लोभियों को न सौंप दिया जाए
तानों की शर शैय्या पर ना लिटा दिया जाए
स्टोव से जला ना दिया जाए।
वो संघर्ष करती है
कि उसकी बात सुनी तो जाए
घर के फैसलों में वह भी शामिल हो
ग़म तो उसे झेलने ही हैं
खुशी में भी उसकी हिस्सेदारी हो।
वो संघर्ष करती है
सुबह से शाम तक
चकरघिन्नी की तरह घूमने के लिए
तरोताजा , स्वस्थ रहने के लिए
सबकी एक एक जरूरतों को
पूरा करने के लिए
कौन कब जगता है , सोता है
क्या खाता है , क्या करता है
सब कुछ याद रखने के लिए
और इसके बावजूद
सबकी झिड़की सुनने के लिए।
वो संघर्ष करती है
बहू के साथ तालमेल बैठाने के लिए
बेटे पर बोझ ना बने , इसके लिए
अपने ही घर में , अपनों से ही
सम्मान पाने के लिए
वृद्धाश्रम न जाने के लिए।
और वो संघर्ष करती है
अपनी सम्मान जनक मृत्यु के लिए
नारी की मर्यादा गरिमा के लिए
प्रकृति , पार्वती , सीता के रूप में
आदरांजलि के लिए।