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L. N. Jabadolia

Abstract

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L. N. Jabadolia

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॥...मज़दूर दिवस...॥

॥...मज़दूर दिवस...॥

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ज़मींदार के खेत से, सेठ की तिजोरी तक,

मेरा ही लहू बहता है, वही सबसे सस्ता है।


स्वर्णिम महलों में अट्ठहास है पूंजीवाद की,

निज सांसों के लाले है, मेरी हालात खस्ता है।


हाँ मै मज़दूर हूँ, हाँ मैं मजबूर हूँ,

मैं अज्ञात हूँ कि आज दिवस मज़दूर है...।


दुनिया जगर-मगर है,चर्चा इधर-उधर है,

मैं मज़दूर हूँ, और आज दिवस मज़दूर है।


मालिक तो फ़ायदे की क़वायद में लगे हैं,

उन पर नहीं असर, कि मेरा निवास किधर है।


ऐलान तो हुआ था कि आशियाना मुझे भी मिलेंगे,

फाइलों में ही है अटका, अब भी अगर-मगर है।


साधन नहीं है कोई भी, भरने हैं कई पेट,

इक टोकरी है सिर पर, मेरा कहाँ घर है।


हाथों में फावड़े हैं हर रोज़ की तरह,

मुझे कहाँ ख़बर है कि आज दिवस मज़दूर है।


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