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L. N. Jabadolia

Abstract Inspirational

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L. N. Jabadolia

Abstract Inspirational

… तुम संभल के रहो।

… तुम संभल के रहो।

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मौसम-ए-मिज़ाज़ बदल रहा है,

दहशत वायरस का फिर दहल रहा है,

बाहर आने को क्यों दिल मचल रहा है ?

नसीहत कर्मवीरों की, सैलाब -ए-शहर को,

प्रक्षालक, नकाब , फासलों में ढल के रहो,

हिफाज़त चाहते हो अपनी, अपनों की,

इस महामारी के दौर में जरा संभल के रहो,

जहाँ भी हो, जैसे भी हो, तुम संभल के रहो।

बेवजह सड़कों पर आने की, जरूरत है क्या ?

इधर-उधर बेतुका ज्ञान बाँटने की,

तुम्हें अगाध फुर्सत है क्या ?

दरकिनार करें हुकूमत का मशवरा,

ऐसी तुम्हारी मनमानी है क्या ?

व्यर्थ तुम्हारी जिंदगानी है क्या ?


माना अभी इंसानियत थोड़ी जिन्दा है,

लापरवाही मुनाफाखोरी कहीं ज्यादा है,

गुफ़्तगू अपनों से, गैरों से, तन्हा न जल के रहो,

इस ख़ामोशी के माहौल को बदल के रहो,

जहाँ भी हो, जैसे भी हो, तुम संभल के रहो।

वफ़ाएं न ढूंढते रहो सिर्फ मशवरों, कहानियों से,

बाज़ क्यों नहीं आ रहे अपनी मनमानियों से,

मिटा न लो वजूद अपना कहीं नादानियों से,

तजुरबा कबूल लो, बेगानी हैरानियों से

हवाएं बदल रही है फिजाओं में ज़हर लिए,

तुम सुकून में रहो या मलाल में रहो,

मखमल में रहो या कम्बल में रहो,

यारों, इम्तिहान के दौर में जरा संभल के रहो,

जहाँ भी हो, जैसे भी हो, तुम संभल के रहो।


श्वसन यन्त्र, प्राण वायु की किल्लत है,

अभी तुम्हारा घर ही जहां -जन्नत है,

जर्जर घास -पट्टियों से बनी दीवार हो,

या वातानुकूलित आलीशान मीनार हो,

छोटा हो, बड़ा हो , तुम अपने घर में रहो,

किसी के दिमाग में रहो या जिगर में रहो ,

आलिंगन में रहो या सिंगल में रहो,

इश्क़ के गुलाब की तरह संभल के रहो,

बोरियत है वक्त में तो, तुम मेरी ग़ज़ल में रहो,

जहाँ भी हो, जैसे भी हो, तुम संभल के रहो।


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