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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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एक एहसास

एक एहसास

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विचारों के समुन्दर में

एक टापू है

हमारी जिज्ञासा का।

अनगिनत जिज्ञासु

आते जाते रहते हैं यहाँ

अपनी अपनी कामनाओं के

वशीभूत।

उनकी अपनी मंजिल होती है

उस मन्जिल का एक रास्ता होता है

प्रयोग होते हैं

युद्ध होते हैं

विचार होते हैं

पर जिज्ञासा नही होती है

हमारी जिज्ञासा के टापू पर

ये युद्ध क्यों

ये सफर क्यों

जो उनका अपना अभीष्ट है

भला कोई खुद से

इतना दूर होता है

जितना यहां आने जाने वाले

हो गये हैं

और हैं

जिज्ञासा भी तो नहीं है

खुद के पास जाने की

कभी भय से

कभी जुनून से

जाते ही रहते हैं खुद से दूर

और कहते रहते हैं

ये सब हमारे लिये है।

भला हो हमारे गुरुत्व का

जो कहता रहता है

खुद को जानो

और इस कोशिश में

कितने बेगाने से हो गये हैं हम

अपने ही जिज्ञासा के टापू में

अपनी ही दुनिया में

अपने ही राज में

शायद उससे भी जो

कहता रहता है खुद को जानो

और हम चल पड़े थे अपनी ओर

और यकीनन खुद में हैं।


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