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manisha sinha

Abstract

4.9  

manisha sinha

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उम्मीद

उम्मीद

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सागर के लहरों को बार -बार

गरोंदों को गिराते देखा है।

तराशे हुए नामों को बेद्दर्दी से

मीटाते देखा है।


अपनी नाफ़रमानी पर ज़ोर से

खिलखिलाया भी है वो

मैंने उसे अपनी ताक़त पर

इतराते हुए भी देखा है।


अजीब सा रिश्ता है शायद

लहरों का जीवन से,

हर हाल में जीतना चाहते हैं।

जाने क्यों एक अजीब सा बैर है इन्हें

औरों के दुःख में सुकून पाते हैं।


यादों के मलबे समेट जब भी

आगे बढ़ना चाहता हूँ,

कुंठा,डर,पछतावे को रेत में मिला

नया कल बनाना चाहता हूँ।


तभी बेरहमी से ज़िंदगी के थपेड़े

मुझे धराशायी कर जाते हैं।

मेरी आत्मविश्वास,कर्मठता पर

सवालिया निशान लगाते हैं।


अब तो लगता है इनसे जूझना

मेरे वश की बात नही।

थक गया हूँ मैं बहुत

कुछ करने की अब चाह नहीं।


जीतना है अगर ज़िंदगी को

तो बेशक ही जीत जाए,

अब मुझे अपनी हार से

फ़र्क़ कोई पड़ता नहीं।


तभी मेरी दुर्बलता पर

चट्टान ज़ोर से चीख़ पड़ा।

सदियों से टकराने की वह

दास्ताँ मुझे सुनाने लगा।


स्तब्ध रह गया मैं उसकी

मनोबल को देखकर।

पानी पानी हो रहा था मैं

अपनी इस कायरता पर।


तय किया हर मुश्किल में

उस जैसा ही बनना है।

करे कोशिश जितनी ज़िंदगी


मज़बूत खड़े रहना है।

क्या जाने कब ये ज़िंदगी

किस मोड़ पर राहत दे जाए,

जैसे सफ़ेद रंग में छुपा

सात रंगों का ख़ज़ाना है।


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