ज़िंदगी के रंग
ज़िंदगी के रंग
अम्बर को धरती से जोड़ता था
शायद, स्वर्ग के दरवाज़े से निकलता था
सतरंगी परियाँ वहाँ रहा करती थीं
इठला कर अक्सर बुलाया करती थी
ख़ज़ानों की जहाँ ना कोई कमी थी
ये राज मुझे आकर बताया करती थी
बादलों की गर्जन से जो डर सा जाता था
ये इन्द्रधुनष चुपके से निकल कर,
मेरे काँपते होठों पर मुस्कान ले आता था।
पर अब ना वहाँ कोई परियाँ ही रहती हैं
ना स्वर्ग के दरवाज़े की आहट ही आती है
नैनों से जो हो बारिश ना इन्द्रधनुष निकलता है
अब तो ये सब क़िस्से और कहानियाँ लगती हैं।
कितना अच्छा था ,
निश्छल मन सब देख पाता था
दुनियादारी के ये उलझन में ना फँसता था
जानें क्यों दिल सही ग़लत की बातों में आ गया
लगता है, शायद अब मैं बड़ा हो गया।