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manisha sinha

Tragedy

4  

manisha sinha

Tragedy

एक टुकड़ा आसमाँ

एक टुकड़ा आसमाँ

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चेहरे पर मुखौटे लिए,

मिलते रहे तुम।

दिल के दर्द को मुस्कान में,

छिपाते रहे तुम।

सिमट गए थे तुम,

अपने ही दायरे में।

क़ैद सा कर लिया था तूने ,खुद को

अपने ही ख़यालों में।

पर मैं भी तो बंद था,

घड़ी की सूईयों में

दिन और रात के

अजीब से चक्रव्यूह में।

कर लिया था दूर तूने खुद को इतना ,

कि कोई आहट तुम तक ना आती थी,

मधुर सी कोई पुकार भी ना

तेरे जज़्बातों को सहलाती थी।

पर मैं भी तो वक्त के हाथों की,

कठपुतली बन बैठा था।

काश समय को छोड़ तेरे संग

दो पल भी तो गुज़ारा होता।

कठोर तेरे आवरण के पीछे 

एक बार तो झाँका होता।

तेरे इंकार के इकरार को एक बार तो परखा होता,

झकझोर तुझे एक रोज़ कभी,

कुछ सवाल तो पूछा होता।

दिल के ज़ख्मों पर तेरे कभी

स्नेह का लेप तो लगाया होता

तेरी बेरुख़ी की वजहों को 

एक बार तो जाना होता।

अब तो जवाबों को समेटें ,

जाने कहाँ तुम चले गए हो।

ना लौटकर आने के लिए

मन में जज़्बातों का तूफ़ान लिए।

हाँ, छोड़ गए हो उस भरोसे को 

जो तुमने हमसे किए थे।

हाँ, कुछ पन्नों के टुकड़े भी पड़े हैं

जिससे तुमने अपने दर्द को कहे थे।

काश कि वो बेजान से काग़ज़ 

कुछ तुमको समझा पाते ,

वो खिड़की जिसे तुम बंद रखते थे

खुलकर नई राह दिखा पाते।

वो आईना जिसे निहारते थे तुम

हज़ारों मन के सवाल लिए,

काश तुम्हें हर जवाब दे पाते।

शर्म आती है इंसान होने पर,

क्या पन्नों से ज़्यादा बेज़ान हैं हम,

तुम्हें थोड़ी देर भी ना सुन पाए।

दीवारों से ज़्यादा सख़्त हैं शायद

लड़खड़ाया जब तू ,

बाँहों का सहारा भी ना दे पाए।

बंद है हमारी दिल

की खिड़कियाँ,

तभी तो तेरे दर्द को महसूस तक ना कर पाए

और आईनें सी कहाँ निश्चल हैं ये आँखें 

तभी तो चेहरे के भावों को तेरे ,

हम पढ़ ही ना पाए।

अब क्यों तुम्हें मैं याद कर रहा।*२

जाने क्यों आडम्बर ,ढोंग कर रहा।

जब इतने ही तुम मेरे थे,*२

तो क्यों ना चीख़ पहले कहा,

हाँ,फ़र्क़ पड़ता है ,

तुम्हारे होने और ना होने से,

हाँ, जब तुम परेशान होते हो,

बल पड़ता है मेरी भी पेशानी पे।

पर एक शिकायत तुमसे भी है,*२

एक बार तो पुकारा होता।

हिम्मत कर दीवार फाँदकर

दूजी ओर तो ताका होता।

क्यों दे दिया जमाने को हक़

अपने तक़दीर की नीलामी की

दिल में खलबली सी मची थी फिर भी 

ना ज़ुबान से इसका विरोध किया।

जाने क्या तेरा हाल था, और 

क्यों उससे मैं अनजान रहा।

तेरे आंसुओं पर रोने वालों की

काश,फ़ितरत तुझे बता पाता।

क्यों ना सम्भाल सका तू खुद को,

क्यों चंगुल में औरों के फँसा रहा

जिन्हें तू रहनुमा समझ रहा था

काश,उनकी असलियत तुम्हें दिखा पाता।

ज़ंजीरों में तू क्यों जकड़ा था,

किसका तुझे ख़ौफ़ था,

जो खुदा तेरा बन बैठा था,

उन्हें इबादत तक कहाँ आता था।

क्यों तू अपने किए की

भरपाई करता रह गया,

जिन्होंने ऐतराज किए थे,

उन्हें खुद दो कदम चलना तक कहाँ आता था।

तुमसे भी तो पूछा होता,

तेरे ख़्वाहिशों की क़ीमत क्या है,

जो बोली बढ़-चढ़कर लगा रहे थे,

उन्हें खवाबों का तजुर्बा ही क्या था!

सवालों में क्यों उलझा रहा

जवाब तो तलाशा होता।

बंद खिड़की एक बार तूने

खुद से ही तो खोला होता

पूरा जहां नही पर,*२

एक टुकड़ा आसमाँ तो दिखा होता।

एक टुकड़ा आसमाँ तो दिखा होता।


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