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Neena Ghai

Abstract

4.4  

Neena Ghai

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आज रात फिर बिन मौसम बरसात हुई

आज रात फिर बिन मौसम बरसात हुई

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रात हिज्र की लम्बी और काली

हमने आँखों में ही निकाल दी थी

रात गहरी थी , तेरे ही ख्यालों में न जाने

कब और कैसे नींद के न आने पर भी


खुली आँखों में भी , हमारी आँख लग गई थी

आज रात फिर बिन मौसम बरसात हुई थी l

यह आज किस तरह की रात आई थी

जो बीते न बीत रही थी

यह मेरी खामोश सूनी आँखें न जाने


क्यों अजीबो गरीब सपने बुननें में लग गयीं थीं

इस काली नागिन जैसी रात में

दूर कहीं बिजली थी चमकी ,

जैसे इस अम्बर ने भी मुझ बिरहन

को देख इक सिसकी थी भरी


सूनी गालियाँ , हर तरफ़ विरानगी छाई थी

ठीक जैसे हमारी आँखें ख़ामोशी और सूनेपन

की तस्वीर बन आई थी 

आज रात फिर बिन मौसम बरसात हुई थी l


हमें कमबख्त इश्क हुआ था

ये रात हमारी हमजोली बन देखने

उस इश्क को बड़ी बेताब हो रही थी


उसे मालूम न था इस इश्क में हमें

जख्मों से भरा पिटारा ही मिला था

और आँखों में सजाने के लिए

काली रात की स्याही मिली थी

आज रात फिर बिन मौसम बरसात हुई थी l

     

यह रात आज ठहर गई थी

फिर भी न जाने क्यों

इक मन में आस बंधी थी

तेरे आने की इस काली स्याह रात में


शायद कोई जुगनू कहीं चमक उठेगा

क्योंकि

आज रात फिर बिन

मौसम बरसात हुई थी।


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