आइने की निगाह में नारी
आइने की निगाह में नारी


हां, मै नारी हूँ, तभी तो इतना
सबऱ है मुझमें
ज़िन्दगी की राह में चलते चलते
इक आवाज़ जो आई ‘ठहर जा’
मुड़ के जो देखा चलते चलते
इक आइना था, जो मुस्करा रहा था,
कहने लगा, ‘पहचान मुझे मैं तेरा ही
अक्स हूँ ‘।
देखा जो, मैंने इक सरसरी नज़र से
पहचान न पाई अपने उस अक्स को,
कहने लगा,
फिर मुझी से, मेरा अक्स
बड़े प्यार से ,”’बनाया था कभी तुझे भी
फ़ुर्सत में उस मालिक ने,
क्या हाल कर दिया अपना
दूसरों के लिये”।
माना तेरी ये फ़ितरत है,
जीना और मरना तूने है
दूसरों के लिये ।
पर अपने को भी तो सम्भाला होता
तूने कभी!
देखा जो ग़ौर से आइने में अपने को तभी,
हैरान थी, परेशान थी
क्या थी ? क्या बन गई
तह उम्र जीती और मरती रही
उनके लिये , जो तेरे हुये ही थे
न कभी ।
अपने को थी मैं भूल ही गई
लगी रही सवांरने में, मैं
दूसरों के लिये ।
फिर कनखिय़ो से देखा,
उस आइने में अपने आप को,
इक मिट्टी का ढेर थी लग रही
न रूप रहा, न रंग रहा
सिर्फ़ आँखों में इक थी चमक अभी,
जो कह उठी, कुछ इस तरह
“दे वक़्त तूँ अपने आप को भी
कुछ उभरने का, कुछ सवंरने का
जी लिया कर कुछ पल अपने लिये भी
कभी देख लिया कर इस आइने में भी
यह झूठ नहीं बोलता कभी भी ।