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एक ही नसीब

एक ही नसीब

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एक अलग ही किस्म थी... उसके लेखन की

लिखती थी हाल जब... वह अपने दिल का !


इश्क था उसको... अपने आप से

पी रही थी वह खुद...अपनी प्यास को !

उतारती थी जब वह...भूली भटकी जिंदगी

अपनी कलम से...उजड़े कैनवास पर !


कहतीं थीं हाल जब, वह अपने अहसास का

टटोलने लगती थी गांठे, दिल के खालीपन का !


जाने कितनी औरतें की जिंदगी के

हवाश हो जाते थे गुम !

सात पर्दों में छुपे राज में

इसने कैसे दिया दखल !


एक कसक... अधूरे मोहब्बत की

एक तड़प... अपने अधूरेपन की !

एक चाहत... उसकी बन जाने की

एक स्वप्न... उसे अपना बनाने की !


कुछ लम्हें... उसके साथ जी जाने का

एक लम्हा... उसके साथ मर जाने का !


छापती थी स्याह कागज में,

आड़ी तिरछी लकीरों को !

उतारती थी टूटे दिल को,

यादों के कच्चे गलियारों में !


कह जाती थी... अधूरेपन का इतिहास

चुभ जाती थी... दो आँखें नश्तर बनकर !

सोचतीं थी... छुपाए रखा सात तालों में

जाना था कब...मेरे जीवन के हिस्से को !



इसने मुझे जिया कैसे...

मेरे जहर को पिया कैसे !

आखिर मेरी टूटन को...

इसने लिखा कैसे...?


भूल गई थी,

हर औरत का एक ही नसीब होता है !

वह कब जियी अपने लिए,

उसे कोई और जी लेता है !


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