पांचाली
पांचाली
आहत हूँ मैं इस नामकरण से
कहीं दुखी भी हूँ
जब जब मेरा नाम बदला
मैं आँसू बहाती भी हूँ।
मैं बोलती नहीं
बस मौन सी रहती हूँ
इन बदलते नामों का घात
चुपचाप सहती रहती हूँ ।
एक पहचान सभी को
अपनी प्यारी होती है
बदले जो पहचान
तकलीफ तो होती है।
कौन अच्छा कौन बुरा
मैं नहीं समझ पाती
बस जाति धर्म के नाम पर
हर बार मेरी पहचान बदल जाती।
टुकड़े भी मेरे हुए अनेकों
तलवारों और तोपों के जोर पर
हर बार मुझे बाँटा गया।
इस स्वार्थ के अंधे मानव ने
अपने अहम और लालच की खातिर
मेरे विस्तार को
टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट दिया।
मैं प्रकृति हूँ
मैं शांत तो रहती हूँ
मैं धरती हूँ
मैं चुपचाप सब सहती हूँ
माँ का दर्जा
तुमने दिया मुझे
फिर भी पांचाली की
तरह आपस में बाँटा है।
मेरा श्राप लगा तुम्हें
तो नातों से टूटा नाता है
जो एक साथ तुम मिलकर
एक घर में रहते थे।
कभी वो देखो
आज घर-घर में भी
हो रहा बँटवारा है।।