हर सावन में
हर सावन में
किसी ग़रीब की झुग्गी की
जर्जर छत की तरह हो गई है
तुमसे बिछड़ने के बाद
आँखें मेरी।
जब भी झड़ी लगती है
सावन की,
ये टपकने लगती हैं।
टप... टप.... टप।
कुछ कारगर नहीं है,
न कोई तिरपाल,
न कोई बाल्टी-बर्तन।
भीगना ही भीगना है,
कभी गालों को, कभी तकिये को।
हर सावन में।