सुराख़
सुराख़
ये जनता है
बहुत कमाती है
मगर बचा नहीं पाती है
दिन भर जीने के लिए मरती है
और जी नहीं पाती है
क्योंकि इसकी हर जेब में
सुराख़ हैं।
मिलावटी सामान खाने से उभरी
बीमारियों के सुराख़,
बिना वजह लिए गए ऋण की
किश्तों के सुराख़,
सरकारी नीतियों
और जमाखोरों से पैदा हुई
महंगाई के सुराख़,
झूठे आन-बान और शान के चक्कर में
बेवजह खर्चों के सुराख़,
बच्चों की पढ़ाई ने नाम पर
बना हुआ बहुत बड़ा सुराख़,
तरह तरह के बाज़ारी प्रोलभनों में
उलझी मानसिकता के सुराख़
एक को संभालती है
दूसरा बढ़ जाता है
जितना भी डालो जेब में
अंदर रह नहीं पाता है।
बेचारी जनता कैसे जिये,
सोच रही है
इन सुराखों को कैसे सिये।