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Arpan Kumar

Tragedy

4  

Arpan Kumar

Tragedy

'फगुनिया'

'फगुनिया'

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सूरज माथे पर चढ़ आया है 

चारों ओर मगर छाया 

यह कैसा अंधियारा है 

तालाब के किनारे तक 

चला आया हूँ 

ढेर सारे उजले कपड़ों की 

कतारों में आ बैठा हूँ 

ये सफेद कपड़े 

मुझे क्यों नहीं सुहाते हैं 

इनमें मुझे लाल ही लाल धब्बे 

क्यों नज़र आते हैं 

अंतःसत्वा धोबिन फगुनिया 

थके कदमों से 

मुझ तक चली आती है

तन से अधिक बोझ 

मन पर है उसके 

धरती पर यह देखो 

धरती-सुता चली आती है 

चाय का गिलास मुझे थमाती है 

इस बहाने 

दर्द अपना बाँटना चाहती है 

कुछ कहना चाहती है 

मगर उसके होंठ 

उसका कहा नहीं मानते 

आँखों से उसके आँसू 

झर झर बहने लगते हैं 

मैं सब कुछ सुन लेता हूँ 

वह कुछ नहीं कह पाती है 

उस देवी की आँखों में पसरी 

यह कैसी खामोशी है 

उसकी कृशकाय काया 

बड़े-बड़ों की माया तले 

दब जाती है

बार बार खींच साँस अंदर

वह रह रह जाती है...

अपनी ताक़त और सत्ता के दम पर 

जिस दुष्ट कुटिल ने 

उसके नशेड़ी पति को परोस 

सस्ती शराब

उसके शरीर को 

बार बार भोगा है

एक साँवली नदी को 

अपने गंदे पैरों से 

जिसने बार बार मथा है

अब उसी के बच्चे को 

वह रक्त अपना पिलाती है

दूसरे की करतूत की सज़ा

किसी और को देने की अदा

उसे अभी कहाँ आई है

हाँ, हर बार  

वह अपने ही घर में सताई गई है

लाज उसने अपनी यूँ लुटाई है... 

जब उसकी कोख में 

यूँ कोई अकालकुसुम खिलता है

उसकी आँखों के नीचे अंधेरा 

तब कुछ और अधिक 

गहराता है 

रात की कालिख से अधिक 

वह अपने जीवन की स्याही से 

घबराई है

जहाँ भरी धूप में कई गिद्ध  

आसपास उसके नज़र आते हैं 

पंख अपने फड़फड़ाते हैं

वह घबराती है

डर डर जाती है

बार बार 

अपने आँचल को समेटती है

नदी यूँ साँस रोके 

अपने ही जल से 

अपने को छुपाती है

मगर आह कि 

गिद्धों की निगाहों से 

कोई कहाँ बच पाता है...

वह यह सब मुझे बताती नहीं 

मेरे आगे कभी रोती नहीं  

मगर मैं उसकी निःशब्द 

ये सिसकियाँ सुन लेता हूँ

टुकड़ों टुकड़ों में कहे 

उसके शब्दों की ईंटों को 

किसी भाँति जोड़ लेता है 

करुणा की ज़मीन पर 

गीले तन मन को गूँथकर,

आँसुओं के जल से 

ये ईंटें बनाई गई हैं 

इन ईंटों की आँच को 

बुदबुदाते शब्दों की साँझ को 

मैं महसूसता हूँ  

बार बार मेरे कान के समीप से 

उसके कहे शब्द 

किसी गोली सरीखे 

आते और चले जाते हैं 

वे अपना जवाब माँगते हैं

वे अपना हिसाब चाहते हैं...  

‘मैले कपड़ों की इतनी 

चिंता करनेवाले

अपने मैले तन-मन को 

क्यों ढोते रहते हैं

गंदगी के इस अंबार में 

कैसे जीते रहते हैं!

सुअरों की यह फौज बढ़ती चली जाती है

हर नदी स्वयं में सिमटती चली जाती है!

यहाँ किसी फगुनिया की झोली में 

खुशियाँ क्यों नहीं आती है!

हर समय जेठ ही क्यों तपता है रहता

फाल्गुन किसके हिस्से जा बैठा है!’ 

दिन भर मैं बेचैन भटकता 

दर दर की ठोकर खाता हूँ

हजारों मीलें चलकर भी 

जैसे किसी एक बिंदु पर 

ठहरा सा रहता हूँ  

सदियों से 

जिसकी पुरानी रुकी घड़ी के 

काँटे पर  

समय थमा है ज्यों 

मैं वह घंटाघर हो जाता हूँ

रात के अंधेरे में 

मेरे अपने कमरे में 

मेरा यह ख़याल 

मुझसे आ लिपटता है

काला कोई अजगर ज्यों 

मुझे निगलने 

तेज़ी से आगे बढ़ा चला आता है

बिस्तर पर लेटा लेटा 

मैं इसका शिकार हो जाता हूँ

पसीने से सराबोर हो उठता हूँ

खुली हवा की तलाश में 

मैं बाहर निकलता हूँ

मग़र यह क्या!

आकाश में छाया घटाटोप 

नीचे धरती तक आ जमा है

अंधेरे ने अपने ऊपर 

अंधेरे का एक और कवच 

चढ़ा रखा है 

मेरे पैर वापस पीछे की ओर 

लौट जाते हैं 

किसी राहत की उम्मीद में 

निकला कोई भविष्य

ज्यों अतीत के कीचड़ में 

धँसता चला जाता है

याद आती है मुझे 

वही धोबिन ‘फगुनिया’

दुखियारी, उस अकिंचन के 

माथे की वे त्योरियाँ

उसके श्रम का गवाह उसका घाट

और उस घाट का वह समतल पाट 

क्या इस भविष्य को 

उसी के हाथों धुलना है 

क्या उसी के घाट पर

निखर कर आएगी नए सवेरे की चमक

क्या वही है इस पृथ्वी पर 

जो अपने अनथके संकल्प की चट्टान पर

ममत्व से उमगती अपनी मजबूत बाँहों को 

उठा उठा 

अंधेरे की काली और भारी चादर को 

पीट पीट कर 

चमका देगी  

कौन जाने आगे क्या हासिल है

फ़िलहाल तो वह ख़ुद ही चोटिल है


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