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विदा!

विदा!

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नदी जो बोलती

मैं टाँक देता

कविता में उसे,

नदी परेशान...

उसका शब्दकोश

सूख रहा था।


कहा — ‘विदा’

एक दिन नदी ने

तरेर कर अपनी आँखें,

और मेरी उँगलियों से

चुम्बक की तरह चिपकी क़लम

छूट पड़ी सहसा,

नदी खिलखिला पड़ी

दोनों किनारों से।


नदी जीत गई थी

उसकी धार

लौट रही थी

और क़ायम हो रहा था

आत्मविश्वास

नए सिरे से,

वह ख़ुश थी

और उसे

मनोरंजन दरकार थी।


नदी मचल रही थी

किसी नई कविता के लिए

और मैं निःशब्द था

डूबते सूरज की मानिन्द,

और ख़ामोशी

किसी विदा-गीत के

अन्तिम शब्द से उठकर

फैल रही थी


आकाश के पश्चिमी छोर पर

गहन अन्धेरे में

विलीन हो जाने के लिए

आख़िरकार ।


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